
एक समय की बात है महर्षि वेदव्यास सरस्वती तट पर स्थित अपने आश्रम पर रहते थे । उनके आश्रम पर दो गौरैया पक्षी रहते थे उन्हें देखकर महर्षि वेदव्यास को बड़ा आश्चर्य हुआ । उन्होंने देखा कि यह पक्षी अभी-अभी अंडे से बाहर निकले अपने बच्चों की चोंच में दाने डाल रहे हैं और उन्हें लाड प्यार कर रहे हैं । यह देख कर महर्षि वेदव्यास के मन में भी पुत्र पाने की इच्छा जागृत हो गई और भी पुत्र पाने की अभिलाषा लेकर तपस्या करने के लिए मंदराचल पर्वत के पास चले गए ।
मंदराचल पर्वतशिखर पर महर्षि वेदव्यास ने वहां पर तपस्या आरंभ कर दी । उनके मन में बार-बार यह विचार आता था की – शक्ति की आराधना करनी चाहिए शक्ति की आराधना करने वाले मनुष्य का इस संसार में सदैव आदर होता है । महर्षि वेदव्यास के कई वर्षों की तपस्या से उनका तेज बहुत बढ़ गया, इसे देखकर इंद्र घबरा गए और कैलाश स्तिथ भगवान शंकर के सामने गए ।
इंद्र को आए हुए देख भगवान शंकर ने पूछा क्या हुआ देवराज इंद्र आप घबराए हुए से लग रहे है । क्या कोई समस्या आ गई है, तब देवराज इंद्र ने कहा । प्रभु , वेदव्यास अति घोर तप कर रहे हैं पता नहीं यह क्या इच्छा लेकर इतना घोर तप कर रहे है, मैं इसी विषय में चिंतित हू । तब महादेव जी ने देवराज इंद्र को सांत्वना दी कि देवराज तुम्हें चिंतित होने की आवश्यकता नहीं है । क्योंकि वेदव्यास पुत्र प्राप्ति के लिए तप कर रहे हैं और शीघ्र ही मैं इन्हें एक अति सुंदर और योगियोंमें श्रेष्ठ पुत्र प्रदान करूंगा ।
तभी इसके बाद भगवान शंकर, तप कर रहे महर्षि वेदव्यास के सामने प्रकट हो गए और उनसे यह वरदान मांगने को कहा , तब महर्षि वेदव्यास ने भगवान शंकर की स्तुति की और उन्हें पुत्र प्रदान करने का वरदान मांगा । भगवान शंकर ने उन्हें ऐसा ही वर दिया और कहा, वेदव्यास तुम्हें अति सुंदर , यश का विस्तार करने वाला और समस्त सद्गुणों से युक्त सत्य परायण पुत्र प्राप्त होगा । इसके बाद वेदव्यास अति प्रसन्न होकर अपने आश्रम लौट आए ।
तपस्या करने से मुनि बहुत थक गए थे । अपने आश्रम आकर यह सोचने लगे, पुत्र उत्पन्न करने के लिए तो स्त्री की आवश्यकता है जो मेरे पास नहीं है । अब मैं किसी स्त्री को कैसे स्वीकार करूं क्योंकि गृहस्थाश्रम बहुत ही संकट दायक होता है और स्त्री तो बंधन देने वाली होती है । स्त्री चाहे कितनी भी सुंदर और पतिव्रता क्यों न हो वह अपनी स्वेच्छा से भोग भोग ना पसंद करती है । ऐसी स्त्री को मैं कैसे स्वीकार करूं वेदव्यास यू विचार कर रहे थे । इतने में घृताची नाम की देवलोक की एक अप्सरा अत्यंत सुंदर रूप बनाकर वहां आ गई , वह दूर आकाश में खड़ी थी उसे देख कर महर्षि वेदव्यास बड़ी चिंता में पड़ गए । वे सोचने लगे यह अप्सरा तो मेरे योग्य नहीं है अब मैं क्या करूं ।
महर्षि को यूं चिंता करते देख अप्सरा को बड़ा आतंक हो गया । उसने सोचा की महर्षि मुझे शाप ना दे दे । इसीलिए उसने एक शक्ति का रूप बना लिया और महर्षि के अग्नि से निकली । अप्सरा को सुग्गी के रूप में देख वेदव्यास को बड़ा आश्चर्य हुआ । अप्सरा को देखते ही महर्षि के शरीर में काम का संचार हो गया । उस समय अग्नि प्रकट करने के लिए महर्षि काष्ठा का मंथन कर रहे थे । अकस्मात उनका वीर्य लकड़ीपर गिर गया । परंतु वे कास्ट मंथन करते ही रहे मुनि के उस अमोघ वीर्य से सुखदेव जी का प्रादुर्भाव हुआ । यह देख कर व्यास जी को अति प्रसन्नता हुई और मन ही मन सोचने लगे , ये कैसी घटना हो गई । बाद में विचार करके वे इस निर्णय पर पहुंचे कि हो ना हो यह भगवान शंकर के वरदान का ही फल है । घृताची सुग्गी का रूप बनाकर शुकदेव जी के सामने आई थी इसीलिए उनका नाम शुकदेव रखा गया था ।
सुखदेव जी बड़े ज्ञानी और परम योगी है । माता के गर्भ से जन्म नहीं लेने के कारण इनको आयोनिज भी कहा जाता है ।
Categories: दुर्गा देवी की कथाएँ, श्री कृष्ण की कथाएँ
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