वृत्रासुर द्वारा इंद्रकी पराजय की कथा

Fight between indra and vritrasura

त्वष्ठा प्रजापति का त्रिशिरा नाम का एक पुत्र था ,जिसे इंद्र ने तपस्या करते समय पद खोने के भय से ,दुखी होकर अपने वज्र से मार डाला था । अपने पुत्र की इस हत्या का बदला लेने के लिए , त्वष्ठा ने वृत्रासुर नाम के एक दूसरे पुत्र को यज्ञ करके उत्पन्न किया । वृत्रासुर विशालकाय और बलवान था । त्वष्ठा ने वृत्रासुर को इंद्र से युद्ध कर उसे पराजित करने के लिए आदेश दिया ।

 तदनन्तर, महाबली वृत्रासुर रथपर बैठा और इन्द्रको मारनेके लिये चल पड़ा । देवताओंने जिन बहुत से दैत्योंको परास्त कर दिया था । वे क्रूर स्वभाववाले दानव भी ,वृत्रासुरको महान् बली समझकर उसकी सेवा करने के लिये साथ हो लिये । यह दानव युद्ध करनेके विचारसे आ रहा है ,यह देखकर इन्द्रके गुप्तचर बड़ी शीघ्रताके साथ देवराजके पास पहुंचे और वृत्रासुर क्या करना चाहता है, उन्होंने यह सूचना दी।

दूतोंने कहा-स्वामिन् ! वृत्रासुर नामका दानव आप का घोर शत्रु है । त्वष्टाने इस बलवान् राक्षसको उत्पन्न किया है । अब बहुत शीघ्र ही रथपर बैठकर वह यहाँ आ रहा है।  उन्होंने आपका संहार करनेके लिये मन्त्र-प्रयोगसे इस दुर्धर्ष दैत्यको उत्पन्न किया है । इसके साथ बहुत-से राक्षस भी है। महाभाग! भयंकर शब्द करनेवाला यह शत्रु बड़ा ही विकराल है । इसकी आकृति ऐसी है, मानो मन्दराचल अथवा सुमेरु पर्वत हो । अब इसके आनेमें किंचिन्मात्र विलम्ब नहीं है। आप अपनी रक्षाका प्रयत्न करें । उसी अवसरपर अत्यन्त डरे हुए देवता भी वहाँ आ पहुँचे ।  वे भी अपनी बात सुनाने लगे ।

देवताओं ने कहा-देवराज, इस समय स्वर्गमें अनेक प्रकारके अपशकुन हो रहे हैं। आकाश, पाताल और मृत्युलोक-सर्वत्र उत्पात ही- उत्पात दृष्टिगोचर हो रहे हैं।  प्रायः अनिष्टकी सूचना देनेवाले सभी अंगों में फड़कन आरम्भ हो गयी है । देवताओंकी ये बातें सुनकर इन्द्र चिन्तित हो गये । उन्होंने बृहस्पतिको बुलाया और उनसे वे मनोगत बात पूछने लगे। इन्द्र ने पूछा- गुरुवार ये भयंकर अपशकुन क्यों हो रहे हैं ? महाभाग ! आप सर्वज्ञ हैं । इस विघ्नको दूर करने की आप में पूर्ण योग्यता है । आप बुद्धिमान्, शास्त्र के तत्वको जाननेवाले तथा देवताओं के गुरु हैं । विधियों के ज्ञाता ब्रह्मन् ! आप शत्रुक्षय करनेवाली कोई शान्ति करनेकी कृपा करें । जिससे मुझे दुःख न देखना पड़े, वैसा ही प्रयत्न आपको करना चाहिये ।

बृहस्पतिजी बोले-सहस्राक्ष ! मैं क्या करूँ इस समय तुम्हारे द्वारा अत्यन्त घोर निन्दित कर्म हो गया है । निरपराधी मुनिको मारकर तुम क्यों इस बुरे फलके भागी बन गये ? अत्यन्त उग्र पुण्य और पापोंका अमिट फल शीघ्र भोगना ही पड़ता है। अतएव कल्याण चाहनेवाले पुरुषको चाहिए कि खूब सोच-समझकर कार्य करे । जिससे दूसरे कष्ट पायें, वैसा कर्म कभी भी न करे । दसरोंको पीड़ा देनेवाला स्वयं सुखी रहे, यह असम्भव है । शक्र | तुमने मोह और लोभमें पड़कर ब्रह्महत्या कर डाली है। अब सहसा किये हुए उसी पापकर्मका यह फळ तुम्हारे सामने आया है । सम्पूर्ण देवता मिलकर भी उस वृत्रामुरको नहीं मार सकते । तुम्हें मारनेके लिये ही वह आ रहा है। उसके साथ बहुत से दानव भी आ रहे हैं । वासव ! दिव्य आयुधोंको लेकर वह सामने आ रहा है । देवेन्द्र ! वह प्रतापी दुर्धर दैत्य जगत्- का संहार करनेकी इच्छासे आ रहा है | यह किसी प्रकार मारा नहीं जा सकेगा ।

 इस प्रकार बृहस्पतिजीके कहनेपर वहाँ कोलाहल मच गया । सभी देवता घर छोड़कर भाग चले । यह देखकर इंद्र अत्यन्त चिन्तित हो गये । फिर तो सेना सजाने के लिये उन्होंने सेवकों को आज्ञा दी और कहा- तुमलोग युद्ध के लिए तैयार हो जाओ क्योंकि इस समय शत्रु हमपर चढ़ाई कर रहा है । इस प्रकार सेवकों को आदेश देकर, देवराज इन्द्र ऐरावत हाथीपर सवार होकर अपने भवन से चल पड़े । ऐसे ही सम्पूर्ण देवता भी अपने अपने वाहनों पर सवार होकर , युद्ध  करनेकेलिए  हाथ में अस्त्र लेकर निकल पड़े ।

तबतक वृत्रासुर भी दानवंको साथ लिये हुए मानस पर्वतकी उत्तरी सीमापर पहुँच गया । इन्द्र भी देवताओं के साथ उसस्थानपर पहुंचा और यूद्ध आरम्भ हो गया । फिर तो, उससमय इंद्र और वृत्रसुरमें भयंकर लड़ाई होने लगी । मानवी वर्षों से सौ वर्षतक युद्ध होता रहा । पहले वरुणका उत्साह भंग हुआ ! फिर वायुगण विचलित हुए, । इन्द्र और अग्नि सहित समस्त देवता युद्धस्थल से भागगए ।

इन्द्र सहित सभी देवता भाग गये-यह देखकर वृत्रासुर भी अपने पिता त्वष्ठा के पास लौट गया । उस समय त्वष्ठा शांतिपूर्वक आश्रमएर विराजमान थे । वृत्रासुर ने प्रणाम करके कहा पिताश्री ! मैंने आपका कार्य कर दिया । इंद्र आदि जिनने देवता युद्धभूमिमें उपस्थित थे, वे सभी परास्त हो गये। वे इस प्रकार भाग चले, जैसे सिंहके सामने हाथियों और भूगोंमें भगदड़ मच जाती है । इन्द्र पैदल ही भाग गया है। उसके श्रेष्ठ हाथीको मैं पकड़ लाया हूँ । भगवन् ! अब आप हाथियोंमें प्रशंसनीय इस ऐरावतको स्वीकार कीजिये । डरे हुए प्राणियोंको मारना अन्याय है-यह समझकर मैंने उनके प्राण छोड़ दिये हैं । पिताजी ! आज्ञा दीजिये, अब मैं आपका कौन-सा मनोरथ पूर्ण करु । सम्पूर्ण देवताओंके हृदयमें घोर आतङ्क छा गया था। थक जानेसे व्याकुल होकर वे भाग गये । इन्द्र भी निर्भय नहीं रह सका । उसने अपने ऐरावत हाथीको छोड़कर स्वर्गकी राह पकड़ ली । 

व्वृत्रासुरकी उपर्युक्त बात सुनकर त्वष्टाके आनन्दकी सीमा न रही। उन्होंने कहा- बेटा! आज मैं अपनेको पुत्रवान् समझता हूँ। मेरा जीवन सफल हो गया। पुत्र ! तुमने मुझे पवित्र कर दिया । आज मेरा मानसिक संताप दूर हो गया । तुम्हारे अद्भुत पराक्रमको देखकर अब मेरे मनमें किसी प्रकारकी हलचल नहीं रही। पुत्र ! अब मैं तुम्हारे हितकी बात कहता हूँ, सुनो और उसपर ध्यान दो । पुत्र बड़ी सावधानी के साथ आसन जमाकर तपस्या करना परम आवश्यक है। किसीका भी निरन्तर विश्वास नहीं करना चाहिये । तुम्हारा शत्रु इन्द्र महान् कपटी है। इसे तरह-तरहकी भेद-विद्याएँ भलीभाँति विदित है । तपस्यासे लक्ष्मी प्राप्त होती है। उत्तम राज्य पानेके लिये तपस्या परम साधन है । तपके प्रभावसे ही प्राणी बुद्धि और बल पाते  हैं । इसीके आचरण मे प्राणी संग्राममें विजय पाता है । अतएव तुम महाभाग ब्रहाजीकी आराधना करके श्रेष्ठ वर पानेकी चेष्टा करो । वर पा जानेपर दुराचारी एवं ब्रह्मघति इन्द्रकी सत्ता नष्ट कर देनी चाहिये । शंकरजी बड़े दानी हैं । सावधान होकर स्थिरतापूर्वक उनकी भी उपासना करो । तुम्हें वे अभीष्ट वर दे सकते हैं। जगत्की रचना करनेवाले ब्रह्मजिमे असीम सामर्थ्य है। उन्हें संतुष्ट करके तुम अमरत्व प्राप्त कर लो । फिर पापी इन्द्रको परास्त कर देना ।

इस तरह वृत्रासुर ने इंद्र को युद्धभूमि से भगादिया ।  बादमें स्वर्गपर अधिकार पाने के उद्देश्य से ,तपस्या करने के लिए चला गया । 



Categories: देवी भागवत पुराण

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