
इंद्र ने अपने पद खोने के भय के कारण ,प्रजापति त्वष्ठा के पुत्र त्रिशिरा की हत्या कर दी । तब त्वष्ठा ने इंद्र से बदला लेने के लिए यज्ञ करके वृत्रासुर नाम के एक दूसरे पुत्र को उत्पन्न किया । वृत्रासुर ने पिता की आज्ञा पाकर मंदराचल पर्वत के उत्तरी सीमापर इंद्र से युद्ध किया , वृत्रासुर का पराक्रम देख सारे देवता युद्धभूमि से स्वर्ग भगगये । वृत्रासुर अपने पिता के पास आगया और अगले कार्य के लिए पूछा । त्वष्ठाने वृत्रासुर को ब्रह्मा की तपस्या कर वरदान पाने का आदेश दिया और वरदान के बल पे इंद्र का साम्राज्य नष्ठ कर स्वयं इंद्र बनने को कहा ।
वृत्रसुरने जब पिताकी ये बातें सुनी तब पितजिसे आज्ञा लेकर वह तपस्या के लिये चला गया । वह गन्धमादन पर्वतपर पहुँचा । वहाँ पुण्यसलिला गङ्गाजी बह रही थीं। स्नान करके उसने कुश का आसन बिछाया और शान्तचित्त होकर वह उसपर बैठ गया। उसने अन्न और जलका बिल्कुल परित्याग कर दिया। योगाभ्यासमें उसकी वृत्ति एकनिष्ठ हो गयी। स्थिर आसन पर बैठकर वह निरन्तर ब्रह्माजीका ध्यान करने लगा। वृत्रासुर तपस्या कर रहा है यह जानकर इन्द्र अत्यन्त चिन्तित हो गये । उन्होंने तपमें विघ्न, उपस्थित करनेके लिये गन्धर्वोंको भेजा । यक्ष, सर्प ,किन्नर, विद्याधर, अप्सराएँ तथा अन्य भी अनेक प्रकारके देवदूत इन्द्रकी प्रेरणासे वहाँ पहुँचे। सभी मायाके जानकार थे। तपस्या नष्ट करने के लिये उन्होंने सम्यकप्रकारसे यत्न किये । किंतु वह परम तपस्वी वृत्रासुर अपने लक्ष्यसे तनिक भी विचलित न हुआ ।
वृत्रासुर अपना कार्य सिद्ध करने के लिये चित्त एकाग्र करके तपस्या कर रहा था। उसे देखकर विघ्न उपस्थित करनेके विचारसे गये हुए देवता निराश होकर वापस लौट आये । तपस्याके सौ वर्ष पूर्ण होने पर लोकपितामह ब्रह्माजी हंसपर बैठे हुए तुरंत वहाँ पधारे । आकर उन्होंने कहा त्वाष्टानन्दन ! शान्त रहो । अब ध्यान करनेकी आवश्यकता नहीं है । वर माँगो । मैं तुम्हारा मनोरथ पूर्ण करनेके लिये तैयार हूँ। तप करते हुए तुम अत्यन्त दुर्बल हो गये हो । यह देखकर अब मैं परम संतुष्ट हूँ । तुम्हारा कल्याण हो, अपना अभीष्ट वर माँग लो।’
ब्रह्माजी जगत के अद्वैत कर्ता हैं! वृत्रासुरके समक्ष उन्होंने जो अत्यन्त विशाद वाणी कही वह अमृतके समान मधुर थी। उसे सुनकर वृत्रासुरने तपस्याका साधन बंद कर दिया और वह अविलम्ब उठकर सामने खड़ा हो गया। उस समय हर्षके उद्रेकसे उसके नेत्र आँसुओंसे भर गये थे। वह दोनों हाथ जोड़े नम्रतापूर्वक मस्तक झुकाकर ब्रह्माजीके चरणोंमें प्रणाम करके सामने खड़ा हो गया । नम्रताके कारण उसका शरीर झुका हुआ था। फिर वरदाता ब्रह्माजीसे, जो तपस्यासे परम संतुष्ट थे, अत्यन्त गद्गद पाणीमें कहने लगा-‘प्रभो ! आज आपका अत्यन्त दुर्लभ दर्शन मिल जानेसे मुझे सम्पूर्ण देवताओंका पद प्राप्त हो गया। किंतु नाथ ! मेरा प्रवृद्ध मन एक बड़ी कठिन अभिलाषासे युक्त है । कमलासन ! उस अभिलाषाको मैं निवेदन करता हूँ, – यद्यपि आपसे कोई भाव छिपा नहीं है । मैं चाहता हूँ भगवन् ! लोहे अथवा काठसे बने हुए, सूखें एवं भीगे तथा इसके सिवा अन्य भी किसी प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंसे मेरी मृत्यु न हो सके। मेरा पराक्रम सदा बढ़ता रहे जिससे परम बल- शाली देवता युद्ध में मुझे कभी जीत न सकें।
वृत्रसुरके इस प्रकार प्रार्थना करनेपर ब्रह्माजी उसके प्रति बोले-वत्स | उठो, तुम्हारा कल्याण हो। जाओ, तुम्हारी अभिलाषा सदा सफल रहेगी। सूखे-गीले अस्त्र-शस्त्रसे तथा किसी कठोर पदार्थ आदिसे तुम्हारा मरण नहीं हो सकेगा । मेरी यह बात अमिट है ।’ वृत्रासुरको यों वर देकर ब्रह्माजी स्वलोकमें पधार गये । वर पा जानेपर वृत्रासुरके हर्षकी सीमा न रही । वह अपने घर लौट गया। उस महान् मेधावी दैत्यने अपने पिता त्वष्टाके सामने ब्रह्माजीसे वर पानेकी बात स्पष्ट कर दी । वरयुक्त पुत्रको पाकर त्वष्टा परम प्रसन्न हो गये। उन्होंने उससे कहा महाभाग ! तुम्हारा कल्याण हो । अब मेरे शत्रु इन्द्रको परास्त करो । इन्द्र बड़ा पापी है । इसने मेरे पुत्र त्रिशिराका वध कर डाला है । तुम जाओ और उसके प्राण हर लो । तदनन्तर युद्ध में विजयी होनेके पश्चात् स्वर्गका शासन-सूत्र भी तुम्हारे हाथमे रहना परम आवश्यक है । बेटा! पुत्र-वघसे उत्पन्न हुए मेरे अपार दुःखको दूर करने में तुम तत्पर हो जाओ। मेरा घोर संताप शान्त करना तुम्हारा परम कर्तव्य है। क्योंकि मेरे चीत्तसे त्रिशिरा कभी भी दूर नहीं हो पाता । वह मेरा पुत्र सुशील, सत्यवादी तपस्वी और वेदका अद्वितीय चानकार था । उस बेचारे निरपराधी पुत्रको कलुषित विचारवाले इन्द्रने मार डाला।
त्वष्टाकी ऐसी बाते हुनकर अत्यन्त दुर्जय वृत्रासुर रथपर सवार हो तुरंत पिताके भननसे निकल पड़ा। युद्ध में उत्साह बढ़ानेवाले ढोल पिटवाये गये । शंखध्वनि हुई । यों उस अभिमानी दैत्यने नियमपूर्वक यात्रा की । वह सेवकोंसे कह रहा था- इन्द्रको मारकर स्वर्गका अकष्टक राज्य भोगूंगा।’ यो घोषित करते हुए वह आगे बढ़ा। सैनिक उसके चारों ओर घिरे हुए थे। उस समय उसकी विशाल सेनाकी गर्जनासे अमरावती भयभीत हो उठी। वृत्रासुर आरहा है। यह जानकर इन्द्रने बड़ी शीघ्रताके साथ सेना सजाना आरम्भ कर दिया । शत्रुसूदन इन्द्रने तुरंत सम्पूर्ण लोकपालीको बुलाया और उन्हें युद्ध करनेकी आज्ञा दी । व्यूहका निर्माण करके इन्द्र स्वयं उसके बीचमें वीराजमान हो गये । शत्रुकी सेनाको कुचल देनेकी शक्ति रखनेनाला वृत्रासुर तुरंत वहाँ आ पहुँचा ।
तदनन्तर देवताओं और दानवों में भयंकर लड़ाई छिड़ गयी । देवता और दानव-दोनों बड़े उत्साहके साथ लड़ रहे थे। अपने-अपने उत्तम आयुधोंसे एक दूसरेपर प्रहार करनेमें व्यस्थ थे । तब वृत्रासुर को भयंकर क्रोध आया और उसने अकस्मात् इन्द्रको पकड़ा और उन्हें वस्त्र एवं कवच आदिसे रहित करके मुख में डाल लिया । उस समय उसे बहोत सुख मिला। यह देख कर देवताओं के मन में अपार आश्चर्य और दुःख हुआ। हा ! इन्द्र मारे गये ऐसा कहते, रोते हुए वे चिल्ला उठे । अब दुखी देवता , प्रणाम करके बृदस्पतिजीसे कहने लगे- आप हमारे परम गुरु हैं-बताइये, अब क्या करना चाहिये । हम सभी देवता रक्षा कर रहे थे, फिर भी वृत्रासुरने इन्द्रको निगल लिया है। उनके न रहनेसे हम सब लोगोंका पराक्रम समाप्त हो गया । अतः अब हम क्या कर सकते हैं। विभो । आप इन्द्रका उद्धार होनेके लिये शीघ्र ही कोई अनुष्ठान करनेकी कृपा करें ।
देवगुरु ने कहा-देवताओ ! क्या किया जाए । वृत्रासुर प्रबल शत्रु है । इसने इन्द्रको मुखमें डाल लिया है । वे उसीमें पड़े हुए हैं । परंतु अभी वे जीवित हैं । देवराजकी यह दशा देखकर देवता चिंतित होगये । फिर आपसमें विचार करके इन्द्रको छुड़ाने के लिये उन्होंने शत्रुका संहार करने याली महान् बलवतीजँभाईका सृजन किया । वृत्रासुरको जैभाई आयी और उसका मुख खुल गया । तब इन्द्र उसके मुखसे तुरंत बाहर निकल आये। तभीसे जगत्में जँभाईकी उत्पत्ति हुई । देवराजके बाहर निकलनेपर देवताओंके मुखपर हँसी छा गयी। इसके बाद फिर युद्ध आरम्भ हो गया।
देवताओं और दानवोंका वह घोर संग्राम दस हजार वर्षों तक चलता रहा । वृत्रसुरकी शक्ति अधिक होने के कारण देवता उस युद्ध मे हार गए और युद्धभूमि छोड़कर भाग गए। युद्ध में हार हारनेपर उन्हें महान् क्लेश हुआ । तुरंत वृत्रासुर आया और देवसदनपर उसने अपना अधिकार जमा लिया । स्वर्गकी सारी वस्तुएं उसके अधीन होगयी । उसने श्रेष्ठ हाथी ऐरावतको भी अपनी सवारी में ले लिया । देवताओं के सभी विमानों पर अब वृत्रासुर का अधिकार था । अपने स्थानसे , च्युत हुए सारे देवता पर्वतोंकी कन्दराओं में जाकर बड़े कष्टके साथ समय व्यतीत करने लगे। अब उन्हें यज्ञमें भाग मिलना भी बंद हो गया था ।
इसतरह वृत्रासुर ब्रह्मजीके वरदान से स्वर्गपर अधिकार पाकर स्वयं इंद्र बन गया था ।
Categories: देवी भागवत पुराण
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