
एक समय की बात है त्वष्ठा प्रजापति के पद पर नियुक्त थे । महान तपस्वी त्वष्ठा को देवताओं में प्रधान माना जाता था । वे बड़े ही कार्यकुशल और ब्राह्मण प्रेमी थे । इंद्रा के साथ कुछ वैमनास्थ होजाने के कारण त्वष्ठा ने एक पुत्र उत्पन्न किया , जिसके तीन मस्तक थे । उस पुत्रकी विश्वरूप नाम से प्रसिद्धि हुई । उसका रूप बडा ही आकर्षक था । उसके तीन मुखों से तीन अलग – अलग कार्य सम्पन्न होते थे । वह एक मुख से वेद पडता ,दूसरे मुख से मधु पान करता और तीसरे मुख से समस्त दिशाओं का निरीक्षण करता । उसने कठिन तपस्या आरम्भ कर दी ,उस समय वह सयंमपूर्ण जीवन व्यतीत करता था । उसके मन मे सदा धार्मिक निष्ठा बानी रहती । समस्त वस्तुओं के संग्रह और परिग्रह से वह मुक्त था । यूँ विवेकी विश्वरूप घोर तपस्या कर रहा था । परंतु उसकी बुद्धि में कुछ मलिनता अवश्य थी ।
विश्वरुप को तप्स्या करते हुए देख इन्द्र को बहुत दुख हुआ । इंद्र अपने पद खोने के भय से दुखी थे । इंद्र सोचते थे वोश्वरूप मेरा पद ले लेगा । उस समय तपस्या के प्रभाव से विश्वरूप की शक्ति बहुत बढ़ गयी थी । उस सत्यवादी तपस्वी को देखकर इंद्र को दिन रात चिंता सताने लगी । उसने सोचा इतना शक्तिशाली त्रिशिरा अवश्य ही मेरा अस्तित्व मिटा देगा । विद्वान पुरुष कहते है शक्तिशाली शत्रु की उपेक्षा नही करनी चाहिए । अतएव उसकी तपस्या नष्ठ करने के लिए मुझे कोई उपाय अवश्य करना चाहिए । कामदेव तपस्या का शत्रु है । यह निश्चित है कि ,कामदेव के प्रभाव से उसकी तपस्या अवश्य ही भंग होजाएगी । इसतरह विचार करके इंद्र ने , कामदेव और अप्सराओं को बुलाकर कहा , त्रिशिरा के तपस्या से मेरा मन बहुत चिंतित है । अपने रूप पर अभिमान करनेवाली अप्सराओं , तुम सब लोग मिलकर मेरा एक काम करो । तुम वहां जाओ जहां त्रिशिरा तपस्या कर रहे है । अपनी नृत्य और श्रृंगार की कला से तुम लोग त्रिशिरा को फँसालो , जिससे उसकी तपस्या भंग होजाये ।
इन्द्र कि बातें सुनकर अप्सराओं ने कहा , प्रभु आप चिंता करना छोड़ दे , हम शीघ्र ही उस त्रिशिरा की तपस्या भंग करके आपको शुभ समाचार देंगे । ऐसा कहकर अप्सराएं त्रिशिरा के आश्रम गयी और तपस्या भंग करने के उद्देश्य से त्रिशिरा के सामने जोर जोर से गाना आरम्भ कर दिया । अप्सराएं इस तरह उस आश्रम पर कुछ दिन रही , किन्तु वे त्रिशिरा को तपस्या से डिगा नही सकी । अप्सराएं हार मानकर देवराज इंद्र के पास गई और कहने लगी , प्रभु हम त्रिशिरा की तपस्या भंग करने में असफल होगए । अप्सराओं से ये बातें सुनकर इंद्र की चिंता बढ़ गयी चिंतित होगये और स्वयं ही त्रिशिरा की तपस्या भंग करने के उद्देश्य से अपने वाहन ऐरावत पर बैठकर त्रिशिरा के आश्रम गए ।
त्रिशिरा को ध्यान में लीन देखकर, इंद्र के मन में, पाप से भरे विचार आ गए । इंद्र ने अपना वज्र हाथ मे लिया और उससे त्रिशिरा पर वार कर दिया । जैसे ही वज्र लगा, त्रिशिरा के शरीर से रक्त की धारा बहने लगी । लेकिन अभी धड़से अलग नही हुए थे । अब यह समाचार सारे मुनियों में फैल गयी और ओ सब वहाँ आकर कहने लगे , इंद्र ने बहोत ही घृणित कार्य कर डाला । इस कार्य के दुष्परिणाम उसे भुगतने पड़ेंगे । ब्राह्मण पर उसने वार किया इससे उसे ब्रह्म हत्या का पाप लगेगा । इंद्र मुनियों की किसी भी बात पे ध्यान नही दे रहे थे । उसने देखा कि त्रिशिरा का शरीर अभी हिल रहा है । उसने सोचा ,कहीं त्रिशिरा, फिर से जीवित तो नहीं होजाएगा ।
इंद्र ने वहीं तक्षा को देखा और कहा , तुम जाकर त्रिशिरा के मस्तक को धड़ से अलग करदो । तक्षा ने पहले तो यह कार्य करने से इनकार करदिया , परंतु जब इंद्र ने उसे यज्ञ में हिस्सा मिलने का लोभ दिया तो वह मान गया । तक्षा ने शीघ्र ही जाकर त्रिशिरा के मस्तक धड़ से अलग कर दिए , तब उसके तीन मुखों से तीन प्रकार के पक्षी निकले । इंद्र को अब यह विश्वास होगया की त्रिशिरा की मृतु होगयी और वह अति प्रसन्न होकर अपने घर चलागया ।
उधर त्वष्टाने ,जब सुना कि मेरा परम धार्मिक पुत्र मार डाला गया तब उनके मन में शोककी सीमा न रही । उन्होंने यह चनन कहा-मेरा पुत्र एक पुण्यात्मा मुनि था। जिसके द्वारा वह मारा गया है, उससे बदला अवश्य लेना है। अतः उसके वधके लिये मैं पुनः पुत्र उत्पन्न करूँगा। देवता मेरा पराक्रम और तपोबल देखें । इस प्रकार कहने के पश्चात त्वष्टाने पुत्र उत्पन्न होने के उद्देश्यले अथर्ववेद के मन्त्रोंका उच्चारण करके अगिमें हवन करना आरम्भ किया। उस ममय क्रोधने उनको व्याकुल कर दिया था। आठ रात्रियोतक हवन होता रहा, अग्नि प्रचण्ड लपटोसे धधकती रही। तदनन्तर उस अग्रिसे एक पुरुष प्रकट हो गया: जो अग्निके समान ही प्रकाशमान था । अग्निसे प्रकट हुआ वह पुत्र गहन तेजस्वी एवं बलवान था ।
तब त्वष्टा उस पुत्रकी ओर आँखें करके कहने लगे , इन्दशत्रो ! तुम मेरी तपस्याके प्रभावसे अत्यन्त शक्तिशाली बन जाओ । उनके कहनेपर अग्निके समान तेजस्वी वह पुत्र अपना कलेवर बढ़ाने लगा । ऐसा बढ़ा, मानो आकाश छू लेगा। उसका विकराल शरीर पर्वतके समान दिखने लगा । अत्यन्त घबराये हुए पितासे उसने कहा – पिताजी ! मुझे क्या करनेकी आज्ञा देते हैं । उत्तम व्रतका आचरण करनेवाले प्रभो ! मेरा नाम बताने के साथ ही कार्यका भी निर्देश कर दें । आप इतने चिन्तित क्यों है ? इसका कारण मैं सुनना चाहता हूँ। मैं अभी-अभी आपकी चिन्ता दूर कर दूंगा । मेरे जीवनका प्रधान उद्देश्य यही है । उस पुत्रके उत्पन्न होनेसे क्या लाभ है, जब कि पिताको दुःख ही झेलना पड़े । मैं अभी समुद्र पी डालता हूँ। मेरे प्रयामसे सम्पूर्ण पर्वत छिन्न-भिन्न हो जायेंगे | मैं तेज किरणोंको बिखेरनेवाले ,इस उगे हुए सूर्यको अभी रोके देता हूँ । आज ही देवताओं सहित इन्द्र और यमराजको मार डालता हूँ। इनके अतिरिक्त और भी कोई विपक्षी नहीं बच सकता । इन सबको तथा पृथ्वीको भी उखाड़कर मैं समुद्रमें फेंक देता हूँ।
पुत्रके ऐसे अनुकूल वचन सुनकर त्वष्टाके आनन्दकी सीमा न रही । अतः पर्वताकार शरीरवाले उस पुत्रसे वे कहने लगे-पुत्र ! तुम इस समय मुझे संकटसे बचाने में समर्थ हो, इसलिये ‘वृत्र’ नामसे जगत्में तुम्हरी प्रसिद्धि होगी । महाभाग ! तुम्हारा त्रिशिरा नामसे विख्यात तपस्वी भाई था । उसके तीन सामर्थ्यशाली मस्तक थे। वह तुम्हारा भ्राता वेद और वेदाङ्गका पूर्ण ज्ञाता था । उसे सभी विद्याएँ ज्ञात थीं । त्रिलोकीको चकित करनेवाली तपस्यामें वह प्रायः संलग्न रहता था । इन्द्रने वज्रसे मारकर उसके मस्तक काट डाले हैं । मेरा वह पुत्र सर्वथा निरपराध था । सहसा यह अप्रिय घटना घट गयी ।
अब पापी इंद्र को परास्त करो, क्योंकि वह ब्रह्मघाती, नीच, निर्लज्ज, दुर्बुद्धि और महान् शठ है। पुत्रके मृत्यु से अत्यन्त दुखी त्वष्ठा यों कहकर भाँति-भाँतिके दिव्य आयुधोंके निर्माणमें लग गये । फिर, इन्द्रका वध करनेके लिये उन आयुर्धोंसे वृत्रासुरको उन्होंने सुसजित कर दिया। उनोहनें एक रथ का निर्माण करके वृत्रासुर को उसपे बिठादिया और उसे युद्ध करनेकी आज्ञा दे दी। वृत्रासुर ने युद्धकरके इंद्र को परास्त कर दिया । जिससे तवस्ता को महान सुख की प्राप्ति हुई ।
इस तरह त्वष्ठा द्वारा वृत्रासुर का जन्म हुआ था ।
Categories: देवी भागवत पुराण
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