कृष्णा भाग २ – कंस के अंत की आकाशवाणी

Krishna Episode 2

 

प्राचीन समयकी बात है ,यमुनाके मनोहर तटपर मधुवन नामका एक वन था। वहाँ लवणासुर नामसे विख्यात एक प्रतापी दानव रहता था। उसके पिताका नाम मधु था। वरके प्रभावसे लवणासुरके अभिमानकी सीमा नहीं थी। उस दुष्टसे सभी जीव कष्ट पा रहे थे। लक्ष्मण के छोटे भाई शत्रुघ्नने उस महाभिमानी दैत्यको संग्राममें मार डाला और वहीं मथुरा नामकी एक अत्यन्त रमणीय नगरी बसा दी। 

मेधावी शत्रुघ्नके दो कुमार थे, जिनकी आँखें कमलके समान थीं। उन्होंने उन दोनों पुत्रोंको मथुराके राज्यका व्यवस्थापक बना दिया। आयु समाप्त होनेपर वे स्वयं स्वर्ग सिधार गये । समयानुसार सूर्यवंशी राजाओंकी सत्ता मिट गयी । तब यादव उस मुक्तिदायिनी मथुराके शासक हुए। यथातिके एक वंशजका नाम शूरसेन था । वे मथुराके राजा हुए थे और वहाँकी सारी सम्पत्ति भोगनेका सुअवसर उन्हें प्राप्त था ।

महाराज शूरसेन के ही वंशज एक दूसरे शूरसेन के पुत्र बनकर ,वरुणके शापानुसार कश्यपजी का जन्म हुआ था । वसुदेवके नामसे उनकी प्रसिद्धि हुई। पिताका स्वर्गवास हो जानेपर वसुदेवजी वैश्यवृत्तिसे जीवन व्यतीत करने लगे। उस समय वहाँके राजा उग्रसेन थे । उनके पुत्रों में जो सबसे बड़ा था, उसकी कंस नामसे ख्याति थी । वरुणने अदितिको भी शाप दे दिया था। इसीलिए वे भी कश्यपजीकी अनुगामिनी बनकर जगत्‌में पधारीं। उन्होंने देवकको पिता बननेका सुअवसर प्रदान किया था। वे देवकी नामसे प्रसिद्ध हुईं ।

महात्मा देवकजी ने अपनी पुत्री देवकीजी का विवाह वसुदेवजी के साथ कर दिया । शूरके पुत्र वसुदेवजी विवाह करके अपनी नवविवाहिता पत्नी देवकीके साथ घर जानेके लिये रथपर सवार हुए । उग्रसेनका लड़का कंस अपनी चचेरी बहिन देवकीको प्रसन्न करनेके लिये उसके रथके घोड़ोंकी रास पकड़ ली। वह स्वयं ही रथ हाँकने लगा, यद्यपि उसके साथ सैकड़ों सोनेके बने हुए रथ चल रहे थे । देवक का अपनी पुत्रीपर  बड़ा प्रेम था। कन्याको विदा करते समय उन्होंने उसे सोनेके हारोंसे अलंकृत चार सौ हाथी, पंद्रह हजार घोड़े, अठारह सौ रथ तथा सुन्दर सुन्दर वस्त्रा – भूषणोंसे विभूषित दो सौ सुकुमारी दासियाँ दहेजमें दीं ।

विदाईके समय वर-वधूके मंगलके लिये एक ही साथ शंख, तुरही, मृदंग और दुन्दुभियाँ बजने लगीं । मार्गमें जिस समय घोड़ोंकी रास पकड़कर कंस रथ हाँक रहा था, उस समय आकाशवाणीने उसे सम्बोधन करके कहा – ‘अरे मूर्ख! जिसको तू रथमें बैठाकर लिये जा रहा है, उसकी आठवें गर्भकी सन्तान तुझे मार डालेगी’ ।

यों आकाशवाणी सुनकर महापराक्रमी कंसके आश्चर्यकी सीमा न रही। उस देववाणीको सत्य मानकर वह अत्यन्त चिन्तित हो उठा। कर्तव्यके विषयमें विचार करनेके पश्चात् उसने यह निश्चय किया कि ‘यदि मैं देवकीको अभी मार डालूँ तो सम्भव है, मृत्यु मेरे पास न आ सके। मृत्युका भय उपस्थित करनेवाले इस कठिन अवसरपर दूसरा कोई उपाय लागू नहीं हो सकता। किंतु देवकजी मेरे पितातुल्य हैं। यह देवकी उनकी पुत्री है। अतः इस पूज्य बहनको कैसे मारूँ—यह विचार उसके मनमें उत्पन्न हो गया। फिर सोचा, ‘यही मेरी साक्षात् मृत्यु है। विद्वान् पुरुष घृणित कर्म करके भी शरीरकी रक्षा किया करते हैं। प्रायश्चित्त कर लेनेपर पाप धुल जाता है। ज्ञानीजनोंने यह नियम बना दिया है कि नीच कर्म करके भी शरीरकी रक्षा करनी चाहिये।’ यों विचार करनेके पश्चात् दुरात्मा कंसने तुरंत तलवार उठा ली और बहिन देवकीके केश पकड़ लिये। उसने म्यानसे तलवार निकालकर उसे हाथमें ले लिया और नवविवाहिता देवकीको अपनी ओर खींचकर उसे मार डालना चाहा। 

 

सारी जनता इस घृणित कार्यको देख रही थी। देवकी मारी जा रही है, यह देखकर बड़े जोरका हाहाकार मच गया। वसुदेवजीका साथ देनेवाले बहुत-से वीर युद्ध करनेके लिये उद्यत हो गये। उन्होंने हाथमें धनुष उठा लिये। वसुदेवजीके वे सभी सहायक बड़े अद्भुत उत्साही थे। उनकी दृष्टिमें देवमाता देवकी कंसकी कृपा-पात्र थी। अतः उन्होंने कंससे कहा—‘इसे छोड़ दो—छोड़ दो।’ कंसको लाचार होकर उसे छोड़ देना पड़ा। कंसके साथ वे महान् भयंकर युद्ध करने लगे। उन सबकी बुद्धि बड़ी विलक्षण थी। कंस भी साधारण व्यक्ति नहीं था। उस महान् भयंकर एवं रोमांचकारी युद्धके आरम्भ हो जानेपर यदुकुलके जो प्रसिद्ध वृद्ध पुरुष थे, उन्होंने कंसको युद्ध करनेसे रोकनेकी बहुत चेष्टा की और कहा—‘वीर! तुममें ऐसी मूर्खता कहाँसे आ गयी! यह तुम्हारी आदरणीया बहन है; इसे मार देना सर्वथा अनुचित है, सो भी विवाहके इस उत्तम अवसरपर। वीर! स्त्रीकी हत्या अत्यन्त दुस्सह कार्य है; इससे जगत्‌में अपयश फैलता है और घोर पाप तो लगता ही है।

 केवल आकाशवाणी सुनकर बिना कुछ सोचे-समझे ऐसा करना बिलकुल अनुचित है। सम्भव है, तुम्हारे अथवा इसके ही किसी शत्रुने तुमलोगोंकी अपकीर्ति फैलानेके लिये आकाशमें छिपकर ऐसी अनर्थकर बात सुना दी हो। राजन्! तुम्हारे अथवा वसुदेवके सुयशको नष्ट करनेके विचारसे ही किसी मायाके जानकार शत्रुने यह बात घोषित की है। अरे, तुम वीर पुरुष होकर भी इस आकाशवाणीसे भयभीत हो रहे हो? तुम्हारे यशको जड़से उखाड़ फेंकनेके लिये ही यह किसी शत्रुकी करतूत है। जो कुछ भी हो, विवाहके इस उत्तम अवसरपर बहनको तो नहीं ही मारना चाहिये। 

महाराज! जो होनेवाली बात है, वह तो अवश्य होकर रहेगी। उसे कौन टाल सकता है।’ इसतरह से सब कंस को समझा रहे थे, लेकिन कंस ने अपना निर्णय नही बदला ।



Categories: कृष्ण अवतार, भागवत पुराण, महाभारत

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