महाराज परीक्षितद्वारा कलीयुगका दमन

पांडवों के शरीर त्यागने के बाद अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित राजा हुए । परीक्षित बहुत ही धर्मात्मा और प्रजास्नेही थे । वे सदा ही ब्राह्मणो की सलाह के अनुसार राज्य का कार्यभार चलाते । एक समय उनको सूचना मिली कि उनके राज्य में कलियुग ने प्रवेश करलिया है । तब राजा परीक्षित ने कलियुग को अपने राज्य से निकलने के लिए दिग्विजय करने का निश्चय किया । अपनी सेना को साथ लेकर राजा परीक्षित उसी समय दिग्विजय करने के लिए चलपडे ।

राजा ने बहोत से राजाओं को परास्त करके उनको अपने अधीन करलिया । एक दिन राजा ने अपने शिविर के समीप दराजा परीक्षित्ने देखा कि एक राजवेषधारी शूद्र हाथमें डंडा लिये हुए है और गाय-बैलके एक जोड़ेको इस तरह पीटता जा रहा है, जैसे उनका कोई स्वामी ही न हो ।

वह श्वेत रंगका बैल एक पैरसे खड़ा काँप रहा था तथा शूद्रकी ताड़नासे पीड़ित और भयभीत होकर मूत्र-त्याग कर रहा था । धर्मोपयोगी दूध, घी आदि हविष्य पदार्थों को देनेवाली वह गाय भी बार-बार शूद्रके पैरोंकी ठोकरें खाकर अत्यन्त दीन हो रही थी । एक तो वह स्वयं ही दुबली-पतली थी, दूसरे उसका बछड़ा भी उसके पास नहीं था। उसे भूख लगी हुई थी और उसकी आँखोंसे आँसू बहते जा रहे थे । 

 स्वर्णजटित रथपर चढ़े हुए राजा परीक्षित्ने अपना धनुष चढ़ाकर  मेघके समान गम्भीर वाणीसे उस राजवेषधारी पुरुषको ललकारा ।  अरे! तू कौन है, जो बलवान् होकर भी मेरे राज्यके इन दुर्बल प्राणियोंको बलपूर्वक मार रहा है? तूने नटकी भाँति वेष तो राजाका-सा बना रखा है, परन्तु कर्मसे तू शूद्र जान पड़ता है । हमारे दादा अर्जुनके साथ भगवान् श्रीकृष्णके परमधाम पधार जानेपर इस प्रकार निर्जन स्थानमें निरपराधोंपर प्रहार करनेवाला तू अपराधी है, अतः वधके योग्य है ।

राजा परीक्षित ने धर्मसे पूछा ,कमल नालके समान आपका श्वेतवर्ण है । तीन पैर न होनेपर भी आप एक ही पैरसे चलते-फिरते हैं । यह देखकर मुझे बड़ा कष्ट हो रहा है। बतलाइये, आप क्या बैलके रूपमें कोई देवता हैं? अभी यह भूमण्डल कुरुवंशी नरपतियोंके बाहुबलसे सुरक्षित है। इसमें आपके सिवा और किसी भी प्राणीकी आँखोंसे शोकके आँसू बहते मैंने नहीं देखे ।

 अब आप शाक ने करें। इस शुद्र से भयभीत होने की आवश्यकता नही है ।  गोमाता! मैं दुष्टोंको दण्ड देने वाला हूँ ,अब आप रोयें नहीं । आपका कल्याण हो । देवि। जिस राजाके राज्यमें दुष्तोंकी उपद्रवसे सारी प्रजा त्रस्त रहती है । उस मतवाले राजाकी कीर्ति,  आयु, ऐश्वर्य और परलोक नष्ट हो जाते हैं ।

राजाओंका परम धर्म यही है कि वे दुखियों का दुःख दूर करें । यह महादुष्ट और प्राणियोंको पीड़ित करनेवाला है। अतः मैं अभी इसे मार डालूँगा ।  सुरभिनन्दन! आप तो चार पैरवाले जीव है। आपके तीन पैर किसने काट डाले? श्रीकृष्णाके अनुयायी राजाओंके राज्यमें कभी कोई भी आपकी तरह दुःखी न हो ।

वृषभ! आपका कल्याण हो। बताइये, आप जैसे निरपराध साधुओंका अंग-भंग करके किस दुष्टने पाण्डवोंकी कीर्तिमें कलंक लगाया है । जो किसी निरपराध प्राणीको सताता है, उसे चाहे वह कहीं भी रहे, मेरा भय अवश्य होगा । दुष्टोंका दमन करनेसे साधुओंका कल्याण ही होता है । जो उद्दण्ड व्यक्ति निरपराध प्राणियोंको दुःख देता है, वह चाहे साक्षात् देवता ही क्यों न हो, मैं उसकी बाजूबंदसे विभूषित भुजाको काट डालूँगा । बिन आपत्तिकालके मर्यादाका उल्लंघन करनेवालोंको शास्त्रानुसार दण्ड देते हुए अपने धर्मेंमें स्थित लोगोंका पालन करना राजाओंका परम धर्म है ।

बैल के रूप में स्थित धर्मने कहा-राजन्! आप महाराज पाण्डुके वंशज हैं। आपका इस प्रकार दुःखियोंको आश्वासन देना आपके योग्य ही है; क्योंकि आपके पूर्वजोंके श्रेष्ठ गुणोंने भगवान् श्रीकृष्णको उनका सारथि और दूत आदि बना दिया था । नरेन्द्र ! शास्त्र के विभिन्न वचनोंसे मोहित होनेके कारण हम उस पुरुषको नहीं जानते, जिससे क्लेशोंके कारण उत्पन्न होते हैं ।

जो लोग किसी भी प्रकारके द्वैतको स्वीकार नहीं करते, वे अपने-आपको ही अपने दुःखका कारण बतलाते हैं। कोई प्रारब्धको कारण बतलाते हैं, तो कोई कर्मको। कुछ लोग स्वभावको, तो कुछ लोग ईश्वरको दुःखका कारण मानते हैं ।  किन्हीं- किन्हींका ऐसा भी निश्चय है कि दुःखका कारण न तो तर्कके द्वारा जाना जा सकता है और न वाणीके द्वारा बतलाया जा सकता है। राजर्षे! अब इनमें कौन-सा मत ठीक है, यह आप अपनी बुद्धिसे ही विचार लीजिये ।

 धर्मका यह प्रवचन सुनकर सम्राट् परीक्षित् बहुत प्रसन्न हुए, उनका खेद मिट गया। उन्होंने शान्तचित्त होकर धर्मसे कहा । 

परीक्षित्ने कहा-धर्मका तत्त्व जाननेवाले वृषभदेव! आप धर्मका उपदेश कर रहे हैं। अवश्य ही आप वृषभके रूपमें स्वयं धर्म हैं। आपने अपनेको दुःख देनेवालेका नाम इसलिये नहीं बताया है क्यों कि , अधर्म करनेवालेको जो नरकादि प्राप्त होते हैं, वे ही चुगली करनेवालेको भी मिलते हैं । धर्मदेव! सत्ययुगमें आपके चार चरण थे-तप, पवित्रता, दया और सत्य। इस समय अधर्मके अंश गर्व, आसक्ति और मदसे तीन चरण नष्ट हो चुके हैं । 

 अब आपका चौथा चरण केवल ‘सत्य’ ही बच रहा है। उसीके बलपर आप जी रहे हैं। असत्यसे पुष्ट हुआ यह अधर्मरूप कलियुग उसे भी ग्रास कर लेना चाहता है । ये गौ माता साक्षात् पृथ्वी हैं। भगवान ने इनका भारी बोझ उतार दिया था और ये उनके राशि राशि सौन्दर्य बिखेरनेवाले चरणचिह्नोंसे सर्वत्र उत्सवमयी हो गयी थीं अब ये उनसे बिछुड़ गयी हैं । वे साध्वी अभागिनीके समान नेत्रों में जल भरकर यह चिन्ता कर रही हैं कि अब राजाका स्वांग बनाकर ब्राह्मणद्रोही शूद्र मुझे भोगेंगे ।

महारथी परीक्षित्ने इस प्रकार धर्म और पृथ्वीको सान्त्वना दी। फिर उन्होंने अधर्मके कारणरूप कलियुगको मारनेके लिये तीक्ष्ण तलवार उठायी ।

कलियुग डर गया कि ये तो अब मुझे मार ही डालना चाहते हैं ।अत: झटपट उसने अपने राज वस्त्र उतार डाले और भयविह्नल होकर उनके चरणों में अपना सिर रख दिया ।

परीक्षित् बड़े यशस्वी, दीनवत्सल और शरणागतरक्षक थे। उन्होंने जब कलियुगको अपने पैरोंपर पड़े देखा तो कृपा करके उसको मारा नहीं । अपितु हँसते हुए, उससे कहा  ,परीक्षित् बोले-जब तू हाथ जोड़कर शरण आगया, तब अर्जुनके यशस्वी वंशमें उत्पन्न हुए किसी भी वीरसे तुझे कोई भय नहीं है । परन्तु तू अधर्मका सहायक है, इसलिये तुझे मेरे राज्यमें बिलकुल नहीं रहना चाहिये ।

तेरे राजाओंके शरीरमें रहनेसे ही लोभ, झूठ, चोरी, दुष्टता, स्वधर्म त्याग, दरिद्रता, कपट, कलह, दम्भ और दूसरे पापोंकी बढ़ती हो रही है । अतः अधर्मके साथी! इस ब्रह्मावर्तमें तू एक क्षणके लिये भी न ठहरना; क्योंकि यह धर्म और सत्यका निवासस्थान है । इस क्षेत्रमें यज्ञविधिके जाननेवाले महात्मा यज्ञोंके द्वारा यज्ञपुरुष भगवानकी आराधना करते रहते हैं ।

इस देशमें भगवान् श्रीहरि यज्ञोंके रूपमें निवास करते हैं, यज्ञोंके द्वारा उनकी पूजा होती है और वे यज्ञ करनेवालोंका कल्याण करते हैं । वे सर्वात्म भगवान् वायुकी भाँति समस्त चराचर जीवोंके भीतर और बाहर एकरस स्थित रहते हुए उनकी कामनाओंको पूर्ण करते रहते हैं ।

परीक्षित्की यह आज्ञा सुनकर कलियुग घबरा गया । यमराजके समान मारनेके लिये उद्यत, हाथमें तलवार लिये हुए परीक्षित्से वह बोला । कलिने कहा-सार्वभौम! आपकी आज्ञासे जहाँ कहीं भी मैं रहनेका विचार करता हूँ, वहीं देखता हूँ कि आप धनुषपर बाण चढ़ाये खड़े हैं । धार्मिकशिरोमणे! आप मुझे वह स्थान बतलाइये, जहाँ मैं आपकी आज्ञाका पालन करता हुआ स्थिर होकर रह सकूँ ।

कलियुगकी प्रार्थना स्वीकार करके राजा परीक्षित्ने उसे चार स्थान दिये-द्यूत, मद्यपान, स्त्री-संग और हिंसा। इन स्थानोंमें क्रमश: असत्य, मद, आसक्ति और निर्दयता-ये चार प्रकारके अधर्म निवास करते हैं । कलियुग ने  और भी स्थान माँगे । तब समर्थ परीक्षत्ने उसे रहनेके लिये एक और स्थान- -‘सुवर्ण’ (धन) – दिया । इस प्रकार कलियुगके पाँच स्थान हो गये झूठ, मद, काम, वैर और रजोगुण ।

परीक्षित्के दिये हुए इन्हीं पाँच स्थानों में अधर्मका मूल कारण कलि उनकी आज्ञाओंका पालन करता हुआ निवास करने लगा  । इसलिये आत्मकल्याणकामी पुरुषको इन पाँचों स्थानोंका सेवन कभी नहीं करना चाहिये । धार्मिक राजा, प्रजावर्गके लौकिक नेता और गुरुओंको तो बड़ी सावधानीसे इनका त्याग करना चाहिये ।

राजा परीक्षित्ने इसके बाद वृषभरूप धर्मके तीनों चरण-तपस्या, शौच और दया जोड़ दिये और आश्वासन देकर पृथ्वीका संवर्धन किया ।

इस तरह राजा परीक्षित ने कलियुग का दमन किया और अपने जीवन काल तक कलियुग के प्रभाव को सीमित रखा ।



Categories: भागवत पुराण

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