जानिए पिता के पेट से उत्पन्न बालक की कथा जो आगे चलकर राजा मान्धाता कहलाए

बहोत पहले की बात है,महाराज कुकुत्स्य अयोध्या के राजा थे । राजा कुकुत्स्य को  इंद्रावह भी कहा जाता था क्यों कि इनोहनें दैत्यों के साथ युद्ध मे इंद्र को अपना वाहन बनाया था । दैत्यों को युद्ध मे पराजय करने के कारण इन्हें पुरंजय भी कहा जाता था । कुकुत्स्य के वंश में जन्म लेने वाले प्रेत्यक राजा को कुकुतसेय भी कहा जाता था । कुकुत्स्य की धर्म पत्नी से महाबली अनेन की उत्पत्ति हुई थी । अनेनके पराक्रमी और सुविख्यात पुत्र पृथु हुए । पृथु को भगवान विष्णु का अंश कहा जाता है । भागवती जगदम्बा के चरणों मे इनकी अटूट श्रद्धा थी । पृथु से जो पुत्र हुए उनको विश्वरन्धी कहा जाता है । विश्वरन्धी के पुत्र राजा चंद्र हुए । चंद्र के पराक्रमी और तेजस्वी पुत्र का नाम  युवनाश्व था । इसी वंश में आगे चल के यौवनाश्व के राजा हुए ।

परम धार्मिक राजा यौवनाश्वके सौ रानियाँ थीं , परंतु किसीसे कोई संतान नहीं हुई । इस कारण वे प्रायः चिन्तातुर रहते थे । तदनन्तर- संतानके लिये अत्यन्त खिन्न होकर वे वनको चले गये और ऋषियोंके पवित्र आश्रमपर उनका समय व्यतीत होने लगा। वहाँ बहुत-से ब्राह्मण तपस्या कर रहे थे। उन नरेशको उदास देखकर ब्राह्मणों के हृदयमें दया उत्पन्न हो गयी । अतः उन ब्राह्मणों ने राजा युवनाश्व से पूछा , नरेश ! तुम इतने चिंतित क्यों हो ? महाराज ! कौन-सा मानसिक संताप तुम्हें इतना कष्ट दे रहा है ? अपनी सच्ची बात बतानेकी कृपा करो । तुम्हारा दुःख दूर करनेके लिये हम यथासाध्य भलीभाँति यत्न करेंगे ।

राजा यौवनाश्वने कहा ,मुनियो ! मेरे पास राज्य, धन एवं उत्तम श्रेणीके बहुत-से घोड़े विद्यमान हैं। महलमें सैकड़ों साध्वी रानियाँ हैं। त्रिलेकीभरमें कोई भी ऐसा शत्रु नहीं है, जो मुझसे बलवान् हो । मन्त्री और सामन्त नरेश सब-के-सब मेरी आज्ञाके पालनमें तत्पर रहते हैं। तपस्वियो ! संतान न होने का ही एक मात्र दुःख मुझे सता रहा है । इसके सिवा दूसरा कोई भी दुःख नहीं है । तपस्तिरयो । आपलोगोंने महान् परिश्रम करके वेद और शास्त्रके रहस्यको जान लिया है। अतः आपकी समझमें मुझ संतान हीन व्यक्ति के लिये जो उचित हो, वह बताने की कृपा करें । तापसो ! आपकी यदि मुझपर कृपा है तो मेरे इस कार्यको सम्पन्न करनेमें आप तत्पर हो जायँ ।

 महाराज यौवनाश्चकी बात सुनकर उन ब्राह्मणोंका मन कृपासे भर गया। उन्होंने बड़ी सावधानीके साथ राजासे एक यज्ञ करवाया, जिसमें प्रधान देवता इन्द्र माने गये थे । बाह्मणोंने जलसे भरा हुआ एक कलश वहां रखवाया था । राजाको संतान हो जाय-इस उद्देश्यको लेकर वैदिक मन्त्रद्वारा उस कलशका अभिमन्त्रण किया गया था । राजा यौवनाश्चको रात मे बड़ी प्यास लग गयी । वे उस यज्ञशालामें चले ग्ये | देखा, सभी ब्राह्मण सोये हैं । कहीं भी जल नहीं है । तब प्यासके मारे वे उस अभिमन्त्रित जलको ही स्वयं पी गये । ब्राह्मणोंने विधिपूर्वक मन्त्रोंसे संस्कृत करके यह जल रानीके लिये रखा था।  अज्ञानत्रश वह जल राजाके पेटमें चला गया । 

प्रातःकाल जब ब्राहाणने देखा कि कलशमें जल बिल्कुल नहीं है, तब उन्होंने महान् सशंकित होकर राजासे पूछा- किसने यह जल पीया है ? राजा ही जल पी गये हैं यह बात जानकर वे समझ गये कि दैव सबसे बढ़कर बलवान् है । तदनन्तर यज्ञकी पूर्णाहुति कराकर वे सभी मुनिगण अपने घर पधारे । मन्त्रके प्रभावसे स्वयं राजाके पेटमें ही गर्भ स्थित हो गया । समय पूर्ण होनेपर इन महाराज यौवनाश्चका दाहिना कोख चीरा गया, जिससे पुत्रकी उत्पत्ति हुई। इस प्रकार पुत्र निकालनेका सारा श्रेय राजाके सुयोग्य मन्त्रियोंके ऊपर निर्भर था । देवताओंकी कृपासे राजाके प्राण नहीं जा सके । उस समय मन्त्री लोग बड़े जोरसे चिल्ला उठे-‘यह कुमार अब किसका दूध पियेगा ।’ इतनेमें इन्द्रने झट उसके मुखमें अपनी तर्जनी अंगुली देकर यह वचन कहा कि ‘मैं इसकी रक्षा करूँगा । समय पाकर वे ही महान् प्रतापी राजा मान्धाता हुए । 

इस प्रकार पिता के पेट से राजा मान्धाता की उत्पत्ति हुई थी ।



Categories: देवी भागवत पुराण

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