जानिए क्यों किया था जनमेजय ने सर्प यज्ञ

अभिमन्यु पुत्र परीक्षित ब्राह्मण कुमार के श्राप के कारण तक्षक नाग के काटने से मारे गए थे । परीक्षित की मृत्यु के बाद उनके पुत्र जनमेजय को राजा बनाया गया । जनमेजय ने कृपाचार्य से धनुर्वेद और अन्य सारे विद्याओं का अध्ययन किया था । जनमेजय अपने प्रजा का अच्छी तरह से पालन करते थे मानो कोई दूसरे युधिष्ठिर ही हो । उसी समय की बात है, उत्तंक नाम के कोई एक मुनि थे, तक्षक नाग ने इनको बहुत कष्ट दिया था । पूर्व के वैर को याद रखते हुए मुनि वरने तक्षक से बदला लेने के विचार से हस्तिनापुर आये ।

 जनमेजय द्वारा तक्षक का प्रतिकार हो सकता है यह सोच कर उत्तंक मुनि जनमेजेय से कहने लगे ,राजन किस समय क्या करना चाहिए और क्या नहीं इसकी जानकारी आपको नहीं है । इसीसे इस समय आपके द्वारा और कर्तव्य का पालन हो रहा है और कर्तव्य की अवहेलना हो रही है । किसके साथ वैर है और उसका क्या प्रतिकार हैं इसकी भी जानकारी आपको नहीं है । इसकी जानकारी ना रखने के कारण आप सदा ही बालक की तरह व्यवहार करते है ।

उत्तंक मुनि की यह बात सुनकर जनमेजय ने पूछा , मुनिवार आप किस वैर की बात कर रहे है । मैं कौन से वैर को भूल चुका हूं, यह बताने की कृपा कीजिए । तब उत्तंक मुनि कहते हैं, महाराज तक्षक नाग ने आपके पिता को काट लिया इससे उनकी मृत्यु हो गई थी । इसीलिए तक्षक आपका वेरी है, आप चाहे तो अपने मंत्रियों को बुलाकर यह पूछ लीजिए कि आपके पिता की मृत्यु कैसे हुई थी । जनमेजय ने मुनि की यह बात सुनकर अपने सारे मंत्रियों को बुलाया और उनसे पिता की मृत्यु का कारण पूछा । मंत्रियों ने कहा महाराज ब्राह्मण कुमार के शाप के कारण ही तक्षक ने आपके पिता को काटा था और इससे उनकी मृत्यु हुई थी । यह सुनकर जनमेजय ने उत्तंक मुनि से कहा, मुनिवर ब्राह्मण कुमार ने शाप दिया था इसीलिए तक्षक ने पिता श्री को काटा था । तब तो पिताश्री की मृत्यु ब्राह्मण कुमार के शाप से हुई, इसमें तक्षक की क्या गलती है । मैं क्यों व्यर्थ में उसके साथ वैर को रखूं ।

जनमेजय की यह बात सुनकर उत्तंक मुनि कहते हैं , विष उतारने वाला कश्यप नाम का एक ब्राह्मण आपके पिता को बचाने के लिए आ रहा था । किंतु तक्षक ने उसे धन लेकर वापस भेज दिया । तो क्या आपके पिता की मृत्यु में तक्षक अपराधी नहीं हुआ । पूर्व काल की बात है रुरुमुनि के पत्नी को एक सर्प ने काट लिया था, तब उनका विवाह भी नहीं हुआ था । बाद में उन्होंने अपनी आधी आयु दे कर पत्नी को जीवित किया था और यह प्रण लिया था कि वह सारे सर्पों को मार डालेंगे । उसी समय से जब भी उन्हें सांप दिखता वे हाथ में लकड़ी लेकर उसे मार डालते । राजन जब रुरुमुनि ने अपने वैर को नहीं भुला , तो आप क्यों अपने पिता की मृत्यु के दोषी को भूल रहे हैं । आपके पिता सर्प के काटे जाने से मृत्यु को पाकर आकाश में भटक रहे है । उन्हें सद्गति नहीं प्राप्त हुई है, उनकी सद्गति के लिए आपको यज्ञ करना चाहिए और उसमें सर्पों की आहुति देनी चाहिए जिससे आपका प्रतिशोध पूर्ण हो और आपके पिता को अच्छे लोग की प्राप्ति हो ।

मुनि की बात सुनकर जनमेजय की आंखे आंसू से भर गई । वे कहने लगे , मैं सच में कितना मूर्ख हुं मेरे पिता तक्षक द्वारा काटने से मृत्यु के बाद आकाश में भटक रहे है और मैं यहाँ मौज मस्ती कर रहा हूँ । अब मुझे अवश्य ही अपने पिता का बदला सर्प कुल से लेना चाहिए । ऐसा सोच कर जनमेजय ने अपने मंत्रियों को आदेश दिया ,तुम लोग शीघ्र ही यज्ञ की तैयारी करो , गंगा के पवित्र तट पर शुद्ध भूमि देख कर वहाँ यज्ञ की वेदी तैयार की जय । विद्वान ब्राह्मणों को इस यज्ञ में आव्हान किया जाये । उत्तंक मुनि को ही होता का कार्य दिया जाए । जनमेजय के मंत्री बड़े बुद्धिमान थे , राजा का आदेश पाते ही मंत्रियों ने सारे कार्य आरंभ करदिये और गंगा के तट पर वेदी का निर्माण भी करा दिया । उत्तंक मुनि को होता बनाकर यज्ञका आरम्भ कर दिया गया ।

तक्षक को जब ये पता चला कि जनमेजय ने सर्पयज्ञ का आरंभ किया है तो वह भयभीत होकर देवराज इंद्र के शरण गया । देवराज इंद्र ने तक्षक को अभय दान दिया । यह बात सुनकर यज्ञ में होता का स्थान लिए हुए उत्तंक मुनि तमतमा उठे और उनोहनें देवराज इंद्र और तक्षक दोनों को ही यज्ञ में आहुति द्वारा आव्हान किया । तक्षक तब आस्तिक मुनि के पास गए ,जो जरत्कारु मुनि के पुत्र थे और उनसे जनमेजय के यज्ञ से रक्षा करने की विनती की ।

आस्तिक मुनि तब जनमेजय के यज्ञ में आये और उनसे यज्ञ रोकने की प्रार्थना की , जनमेजय ने कहा मुनिवर मैं अगर यज्ञ रोक दूंगा तो मेरे प्रण का क्या होगा । मुनिवर आस्तिक ने फिर से जनमेजय से वही प्रार्थना की ,तब जनमेजय मान गए और उनोहनें यज्ञ रोक दिया । उसके बाद वैशम्पायन जी ने जनमेजय को महाभारत की कहानी सुनाई परंतु इससे राजा के मन को शांति नही मिली । जनमेजयने तब वेदव्यास जी से कहा , मुनिवर आप मुझे कोई उपाय बताइये जिससे मेरे मन को शांति मिले । मेरे शरीर मे एक आग सी लगी रहती है जिससे मैं बहोत विचलित हुं ।

जनमेजय की प्रार्थना सुनकर वेदव्यास जी ने कहा, राजन मैन एक उत्तम पुराण का निर्माण किया जिसका नाम देवीभागवत पुराण है । इसके श्रवण से मनुष्य धर्म ,अर्थ, काम, और मोक्ष का अधिकारी बन जाता है । इस पुराण में भगवती आदिशक्ति की लीलाओं का वर्णन किया गया है , देवी ने किस तरह मधु कैटभ , महिषासुर , धूम्रलोचन , चंड- मुंड , रक्तबीज और शुम्भ-निशुम्भ का वध किया था इसका विस्तार से वर्णन किया गया है । देवी ने किस तरह अपने भक्तों पर कृपा की थी इसका भी वर्णन है । आप मूझसे वह पुराण सुनिए आपका मन अवश्य ही शांत हो जाएगा ।

ऐसा कहकर वेदव्यास ने  जनमेजय को देवी भागवत पुराण सुनाया । देवीभागवत सुनने के बाद जनमेजय को परम शांति मिली और वे आदिशक्ति के भक्त बन गए ।



Categories: देवी भागवत पुराण, महाभारत

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