राजा परीक्षित को श्रृंगी ऋषिके शाप की कथा

 द्वापर युग के अंत में भगवान श्री कृष्ण ने पृथ्वी पर अवतार धारण करके अधर्मी राजाओं के भार से पृथ्वी को मुक्त किया था  । जब भगवान श्रीकृष्ण  अपना अवतार कार्य समाप्त करके अपने धाम को चले गए तब पंडवोने भी अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित को राज सिंहासन पर बीटा दिया और स्वयं हिमायल को चले गए । आगे चलकर राजा परीक्षित ने अपने राज्य में आने पर कलियुग का दमन किया था । राजा परीक्षित के जिकां काल मे कलियुग का प्रभाव बहोत ही सीमित था । शरण मे आनेपर राजा परीक्षित ने कलियुग को कुछ ही स्थानों में रहने की अनुमति दी थी ओ स्थान थे ,द्यूत, मद्यपान, स्त्री-संग , हिंसा और सुवर्ण ।

 जिस दिन, जिस क्षण श्रीकृष्णने पृथ्वीका परित्याग किया, उसी समय पृथ्वीमें अधर्मका मूलकारण कलियुग आ गया था । भ्रमरके समान सारग्राही ,सम्राट् परीक्षित् कलियुगसे कोई द्वेष नहीं रखते थे । क्योंकि इसमें यह एक बहुत बड़ा गुण है कि पुण्यकर्म तो संकल्पमात्रसे ही फलीभूत हो जाते हैं, परन्तु पापकर्मका फल शरीरसे करनेपर ही मिलता है,संकल्पमात्रसे नहीं । यह भेड़ियेके समान ,बालकोंके प्रति शूरवीर और धीर वीर पुरुषोंके लिये बड़ा भीरु है । यह प्रमादी मनुष्योंको अपने वशमें करनेके लिये ही सदा सावधान रहता है । 

एक दिन राजा परीक्षित् धनुष लेकर वनमें शिकार खेलने गये हुए थे। हरिणोंके पीछे दौड़ते दौड़ते वे थक गये और उन्हें बड़े जोरकी भूख और प्यास लगी । जब कहीं उन्हें कोई जलाशय नहीं मिला, तब वे पासके ही एक ऋषिके आश्रममें घुस गये उन्होंने देखा कि वहाँ आँखें बंद करके शान्तभावसे एक मुनि आसनपर बैठे हुए हैं ।  इन्द्रिय, प्राण, मन और बुद्धिके निरुद्ध हो जानेसे वे संसारसे ऊपर उठ गये थे । 

जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति तीनों अवस्थाओंसे रहित निर्विकार ब्रह्मरूप तुरीय पदमें वे स्थित थे । उनका शरीर बिखरी हुई जटाओंसे और कृष्ण मृगचर्मसे ढका हुआ था । राजा परीक्षित्ने ऐसी ही अवस्थामें उनसे जल माँगा, क्योंकि प्याससे उनका गला सूखा जा रहा था ।  जब राजाको वहाँ बैठनेके लिये तिनकेका आसन भी न मिला, किसीने उन्हें भूमिपर भी बैठनेको न कहा-अर्घ्य और आदरभरी मीठी बातें तो कहाँसे मिलती-तब अपनेको अपमानित-सा मानकर वे क्रोधके वश हो गये ।

राजा परीक्षित भूख-प्याससे छटपटा रहे थे, इसलिये एकाएक उन्हें ब्राह्मणके प्रति ईर्ष्या और  क्रोध हो आया । उनके जीवनमें इस प्रकारका यह पहला ही अवसर था , वहाँसे लौटते समय उन्होंने क्रोधवश धनुषकी नोकसे एक मरा साँप  उठाकर ऋषिके गलेमें डाल दिया और अपनी राजधानीमें चले आये ।  उनके मनमें यह बात आयी कि इन्होंने जो अपने नेत्र बंद कर रखे हैं, सो क्या वास्तवमें इन्होंने अपनी सारी इन्द्रियवृत्तियोंका निरोध कर लिया है अथवा इन राजाओंसे हमारा क्या प्रयोजन है, यों सोचकर इन्होंने झूठ-मूठ समाधिका ढोंग रच रखा है । राजा ने पूर्व समयमे कलियुग को सुवर्ण में रहने के लिए स्थान दिया था । राजा ने अपने सरपर सुवर्ण का मुखोटा पहन रखा था इसलिये कुछ समय के लिए कलियुग ने उनकी बुद्धिपर अपना प्रभाव बना लिया था ।

उन शमीक मुनिका पुत्र बड़ा तेजस्वी था । वह दूसरे ऋषिकुमारोंके साथ पास ही खेल रहा था । जब उस बालकने सुना कि राजाने मेरे पिताके साथ दुर्व्यवहार किया है, तब वह इस प्रकार कहने लगा ।  ‘ये नरपति कहलानेवाले लोग उच्छिष्टभोजी कौओंके समान संड-मुसंड होकर कितना अन्याय करने लगे हैं । ब्राह्मणोंके दास होकर भी ये दरवाजेपर पहरा देनेवाले कुत्तेके समान अपने स्वामीका ही तिरस्कार करते हैं ।

 ब्राह्मणोंने क्षत्रियोंको अपना द्वारपाल बनाया है। उन्हें द्वारपर रहकर रक्षा करनी चाहिये, घरमें घुसकर स्वामीके बर्तनोंमें खानेका उसे अधिकार नहीं है । अतएव उन्मार्गगामियोंके शासक भगवान् श्रीकृष्णके परमधाम पधार जानेपर इन मर्यादा तोड़नेवालोंको आज मैं दण्ड देता हूँ , मेरा तपोबल देखो’ ।  अपने साथी बालकोंसे इस प्रकार कहकर क्रोधसे लाल-लाल आँखोंवाले उस ऋषिकुमारने कौशिकी नदीके जलसे आचमन करके अपने वाणी-रूपी वज्रका प्रयोग किया । ‘कुलांगार परीक्षित्ने मेरे पिताका अपमान करके मर्यादाका उल्लंघन किया है, इसलिये मेरी प्रेरणासे आजके सातवें दिन उसे तक्षक सर्प डस लेगा ।

इसके बाद वह बालक अपने आश्रमपर आया और अपने पिताके गलेमें साँप देखकर उसे बड़ा दुःख हुआ तथा वह ढाड़ मारकर रोने लगा ।   शमीक मुनिने अपने पुत्रका रोना चिल्लाना सुनकर धीरे-धीरे अपनी आँखें खोली और देखा कि उनके गलेमें एक मरा साँप पड़ा है । अपने गले मे पड़े उस मारे हुए सांप को फेंककर, उन्होंने अपने पुत्रसे पूछा-‘बेटा! तुम क्यों रो रहे हो? किसने तुम्हारा अपकार किया है ?’ उनके इस प्रकार पूछनेपर बालकने सारा हाल कह दिया । 

 ब्रह्मर्षि शमीकने राजाके शापकी बात सुनकर अपने पुत्रका अभिनन्दन नहीं किया। उनकी दृष्टिमें परीक्षित् शापके योग्य नहीं थे ,उन्होंने कहा- ‘ओह, मूर्ख बालक! तूने बड़ा पाप किया! खेद है कि उनकी थोड़ी-सी गलतीके लिये तूने उनको इतना बड़ा दण्ड दिया । तेरी बुद्धि अभी कच्ची है ।  तुझे भगवत्स्वरूप राजाको साधारण मनुष्यों के समान नहीं समझना चाहिये , क्योंकि राजाके दुस्सह तेजसे सुरक्षित और निर्भय रहकर ही प्रजा अपना कल्याण सम्पादन करती है ।

जिस समय राजाका रूप धारण करके भगवान् पृथ्वीपर नहीं दिखायी देंगे, उस समय चोर बढ़ जायेंगे और अरक्षित भेड़ोंके समान एक क्षणमें ही लोगोंका नाश हो जायगा ।  राजाके नष्ट हो जानेपर धन आदि चुरानेवाले चोर जो पाप करेंगे, उसके साथ हमारा कोई सम्बन्ध न होनेपर भी वह हमपर भी लागू होगा । क्योंकि राजाके न रहनेपर लुटेरे बढ़ जाते हैं और वे आपसमें मार-पीट, गाली-गलौज करते हैं, साथ ही पशु, स्त्री और धन-सम्पत्ति भी लूट लेते हैं । 

उस समय मनुष्योंका वर्णाश्रमाचार युक्त वैदिक आर्यधर्म लुप्त हो जाता है, अर्थ-लोभ और काम-वासनाके विवश होकर लोग कुत्तों और बंदरोंके समान वर्णसंकर हो जाते हैं । सम्राट परीक्षित् तो बड़े ही यशस्वी और धर्मधुरन्धर हैं । उन्होंने बहुत-से अश्वमेध यज्ञ किये हैं और वे भगवानके  परम प्यारे भक्त हैं ,वे ही राजर्षि भूख प्याससे व्याकुल होकर हमारे आश्रमपर आये थे, वे शापके योग्य कदापि नहीं हैं ।

ऋषि शमीक ने भगवान से प्रार्थना की , इस नासमझ बालकने हमारे निष्पाप सेवक राजा का अपराध किया है, सर्वात्मा भगवान कृपा करके इसे क्षमा करें ।  भगवान के भक्त में भी बदला लेने की शक्ति होती है, परंतु वे दूसरे द्वारा किये हुए अपमान, धोखेबाजी, गाली-गलौज, आक्षेप और मार-पीटका कोई बदला नहीं लेते । महामुनि शमीकको पुत्रके अपराधपर बड़ा पश्चात्ताप हुआ । राजा परीक्षित्ने जो उनका अपमान किया था, उसपर तो उन्होंने ध्यान ही नहीं दिया । महात्माओंका स्वभाव ही ऐसा होता है कि जगत्में जब दूसरे लोग उन्हें सुख-दुःखादि द्वन्द्वोंमें: डाल देते हैं, तब भी वे प्रायः हर्षित या व्यथित नहीं होते; क्योंकि आत्माका स्वरूप तो गुणोंसे सर्वथा परे है ।

इस तरह शमीक ऋषि के पुत्र श्रृंगी ऋषि ने राजा परीक्षित को शाप दिया था ।



Categories: भागवत पुराण

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