देवराज इंद्र ने ,स्वर्ग खोने के भय है त्वष्टा के पुत्र त्रिशिरा का अपने वज्र से वध कर दिया था । अपने पुत्र की मृत्यु का बदला लेने के लिए, त्वष्ठा ने एक दूसरे पुत्र वृत्रासुर को उत्पन्न किया था । वृत्रासुर ने ब्रह्मा जी की तपस्या कर यह वरदान पाया था की, उसकी मृत्यु ऐसे किसी भी शस्त्र से ना हो जो लोहे अथवा काठ से बना हो । मेरी मृत्यु, ना ही भीगी अथवा सुखी वस्तु से हो । अन्य किसी भी शास्त्र से मृत्यु ना हो । मुझमें इतना बल आ जाये कि मैं देवताओं को पराजित कर दूं । अपने इस वरदान के बल पर वृत्रासुर ने, इंद्र और देवताओं को स्वर्ग से बाहर निकाल दिया और स्वयं ही इंद्र बन बैठा ।
भगवान विष्णु के सलाह देने पर, उस समय देवताओं ने वृत्रासुर के साथ इंद्र की मित्रता करा दी । इसके पश्चात वृत्रासुर और इंद्र दोनों ही घनिष्ठ मित्र बन गए । वृत्रासुर इंद्रपर पूरी तरह से भरोसा करता था । किंतु देवराज इंद्र सदा ही वृत्रासुर को मारने का अवसर ढूंढते रहते थे । एक बार दोनों समुद्र के तट पर विहार कर रहे थे । तब, इंद्र ने समुद्र तट पर उत्पन्न झाग में अपने वज्र को छिपाकर वृत्रासुर की हत्या कर दी । उस समय वज्र में देवी ने अपनी शक्ति का संचार करदिया था । वृत्रासुर की हत्या करने के बाद, इंद्र को ब्रह्महत्या का पाप लग गया ।
इसके बाद संसार में सभी इंद्र की निंदा करने लगे । देवता लोग यह बातें करते थे ,इंद्र कितना पापी है । जिस वृत्रासुर ने, उस पर इतना विश्वास किया उसी को इस ने मार डाला । यह तो विश्वासघाती है , हम मुनि लोगों ने भी इसका साथ दिया । आज हमारे मुनित्व पद पर कलंक लग गया । अपने इस कृत्य के कारण इंद्र के मन को शांति नहीं मिल रही थी । उसकी, रुचि किसी भी वस्तु में नहीं थी । इंद्र पत्नी शचीने इंद्र से पूछा, प्रभु अब तो आप का शत्रु वृत्रासुर भी मारा गया , फिर भी आप इतने चिंतित और उदास क्यों दिख रहे हैं । शचि की बात सुनकर इंद्र कहते हैं , मैं आजकल बहुत ही विचलित रहता हूं । मेरे मन को चैन नहीं मिलता, मैंने ब्रह्मा हत्या जैसा पाप कर दिया है । अब मुझे इस से मुक्ति प्राप्त करनी है ।
कुछ दिन यूं ही स्वर्ग में बिताकर, एक दिन इंद्र ने बिना किसी को बताए स्वर्ग से चले गए । मानसरोवर में जाकर, वहां पर एक कमल की नली में छिपकर रहने लगे । उस समय इंद्र को अपने कर्तव्य का भी बोध नहीं था । वह स्वर्ग के अपने राज्य को यूं ही छोड़ कर चले गए । इधर देवताओं ने इंद्र को बहुत ढूंढा किंतु वे उन्हें कहीं नहीं मिले । समस्त मुनियों ने और देवताओं ने ,इंद्र के पद को खाली नहीं रखना चाहिए, यह विचार कर नहुष को इंद्र के पद पर बिठा दिया ।
नहुष इंद्र बनने के बाद शचि पर मोहित हो गया और अपने संस्कारों को भूलकर उसने शचि को अपना पत्नी बनाना चाहा । इससे देवता बहुत ही दुखी हुए और अपने पूर्व के इंद्र को ढूंढने के लिए बहुत प्रयास किया । किंतु इंद्र उन्हें कहीं भी नहीं मिले । तब सारे देवता भगवान विष्णु के पास वैकुंठ में गए । भगवान विष्णु सर्वशक्तिमान और सर्वांतर्यामी है । इस संसार में कोई भी बात उनसे नहीं छुपी होती । उनसे देवताओं ने सहायता मांगी कि ,वे उन्हें इंद्र के वासस्थान की जानकारी दें । इंद्र को ब्रह्मा से मुक्त करने का मार्ग भी पूछा ।
तब करुणामई भगवान विष्णु ने , सहायता करने के लिए देवताओं से कहा, इस समय देवराज इंद्र मानसरोवर में एक कमल की नली में निवास कर रहे हैं । आप लोग उनसे अश्वमेध यज्ञ कराइए , यह यज्ञ भगवती जगदंबा को प्रसन्न करने के लिए एक अचूक मार्ग है । इससे भगवती इंद्र पर प्रसन्ना हो जाएगी और उनको ब्रह्महत्या के पाप से मुक्ति मिल जाएगी । भगवान विष्णु की आज्ञा पाकर, सभी देवता बृहस्पति जी के साथ मानसरोवर गए जहां पर इंद्र छिपकर रह रहे थे ।
बृहस्पति जी ने देवताओं के साथ मिलकर इंद्र द्वारा अश्वमेध यज्ञ कराया । यज्ञ के संपन्न होने के बाद भगवान विष्णु वहां पर प्रकट हुए । इंद्र के ब्रह्म हत्या के पाप को उन्होंने विभाजित करके थोड़ा-थोड़ा नदियों,पर्वतों ,जंगलों और स्त्रियों में पर फेंक दिया । इसके बाद इंद्र ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्त हो गए । विष्णु ने देवताओं से कहा ,कुछ समय बाद नहुष , इंद्र के पद से, अपने पाप फलस्वरूप निकाल दिये जाएंगे । उसके बाद तुम लोग देवराज को पुनः इंद्र के पद पर स्थापित कर देना ।
कुछ दिनों बाद, महर्षि अगस्त्य के शाप के कारण , इंद्र पद से निकाल दिये गए और वह एक अजगर बन गए । इसके बाद देवताओं ने, देवराज को इंद्र के पद पर स्थापित कर दिया ।
इस प्रकार भगवान विष्णु के आदेशानुसार, भगवती आदिशक्ति को प्रसन्न करने के लिए अश्वमेध यज्ञ करके , देवराज इंद्र अपने ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त हुए थे ।
Categories: देवी भागवत पुराण
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