परीक्षितकी दिग्विजय तथा धर्म और पृथ्वीका संवाद

पांडवोंके अपने जीवन का त्याग करने के बाद उनके वंशज महाराज परीक्षित हस्तिनापुर साम्राज्य का शासन करने लगे । ब्राह्मणों की शिक्षा और सलाह के अनुसार परीक्षित अपना राज्य चलाया करते थे । उनके जन्म के समय ज्योतिषियों ने उनके बारे में जो कुछ भी कहा था वह सारे गुण उनमें थे ।

राजा परीक्षित ने अपने मामा उत्तरकी पुत्री इरावती से विवाह किया । इरावतीसे परीक्षित ने जन्मेजय आदी चार पुत्र उत्पन्न किए । कृपाचार्य को आचार्य बनाकर उन्होंने तीन अश्वमेध यज्ञ कीये । इन यज्ञोंके बाद राजा परीक्षित ने ब्राह्मणों में बहुत सारी दक्षिणा बाटी । इन सभी यज्ञोंमें देवताओंने प्रत्यक्ष रूप में प्रकट होकर अपना भाग ग्रहण किया था ।

एक समय की बात है राजा परीक्षितने सुना कि उनके सेनाके द्वारा ठीक से सुरक्षित साम्राज्य में कलीयुग ने प्रवेश कर लिया है । कलीयुग के अपने साम्राज्य में प्रवेश को सुनकर महाराज पपरीक्षित को बहुत दुख हुआ । राजा ने यह सोच कर की युद्ध करने का अवसर मिला है इतना दुख नहीं किया । इसके बाद परीक्षित ने धनुष हाथ में लिया और घोड़ों से जूते हुए सिंहकी ध्वजा वाले सुसज्जित रथ पर सवार होकर दिग्विजय करने के लिए नगर से बाहर निकल पड़े ।

उस समय रथ, हाथी, घोड़े और पैदल सेना उनके साथ-साथ चल रही थी । उन्होंने भद्राश्व, केतुमाल, भारत, उत्तरकुरु और किम्पुरुष आदि सभी वर्षोंको जीतकर वहाँकै राजाओंसे भेंट ली । उन्हें उन देशोंमें सर्वत्र अपने पूर्वज महात्माओंका सुयश सुननेको मिला । उस यशोगानसे पद-पदपर भगवान श्रीकृष्णकी महिमा प्रकट होती थी । इसके साथ ही उन्हें यह भी सुननेको मिलता था कि भगवान् श्रीकृष्णने अश्वत्थामाके ब्रह्मास्त्रकी ज्वालासे किस प्रकार उनकी रक्षा की थी । 

यदुवंशी और पाण्डवोंमें परस्पर कितना प्रेम था तथा पाण्डवोकी भगवान् श्रीकृष्णमें कितनी भक्ति थी । जो लोग उन्हें ये चरित्र सुनाते, उनपर महामना राजा परीक्षित् बहुत प्रसन्न होते ,उनके नेत्र प्रेमसे खिल उठते। वे बड़ी उदारतासे उन्हें बहुमूल्य वस्त्र और मणियोंके हार उपहाररूपमें देते । वे सुनते कि भगवान् श्रीकृष्णने प्रेमपरवश होकर पाण्डवोंके सारथिका काम किया, उनके सभासद् बने ,यहाँतक कि उनके मनके अनुसार काम करके उनकी सेवा भी की । 

श्रीकृष्ण उनके सखा तो थे ही, दूत भी बने। वे रातको शस्त्र ग्रहण करके वीरासनसे बैठ जाते और शिविरका पहरा देते, उनके पीछे-पीछे चलते, स्तुति करते तथा प्रणाम करते; इतना ही नहीं, अपने प्रेमी पाण्डवोंके चरणों में उन्होंने सारे जगतको झुका दिया। तब परीक्षित्की भक्ति भगवान् श्रीकृष्णके चरणकमलोंमें और भी बढ़ जाती । इस प्रकार राजा परीक्षित  पाण्डवोंके आचरणका अनुसरण करते हुए दिग्विजय कर रहे थे।

 उन्हीं दिनों उनके शिविर से थोड़ी ही दूरपर एक आश्चर्यजनक घटना घटी ।  धर्म बैलका रूप धारण करके एक पैरसे घूम रहा था। एक स्थानपर उसे गायके रूपमें पृथ्वी मिली । पुत्रके मत्युसे दुःखिनी माताके समान उसके नेत्रोंसे आँसुके झरने बह रहे थे। उसका शरीर श्रीहीन हो गया था।

धर्म पृथ्वीसे पूछने लगा ,तुम्हारा मुख कुछ-कुछ मलिन हो रहा है।  तुम श्रीहीन हो रही हो, मालूम होता है तुम्हारे हृदयमें कुछ न कुछ दुःख अवश्य है । क्या तुम्हारा कोई सम्बन्धी दूर देशमें चला गया है, जिसके लिये तुम इतनी चिंता कर रही हो ? 

कहीं तुम मेरी तो चिन्ता नहीं कर रही हो कि अब इसके तीन पैर टूट गये, एक ही पैर रह गया है? सम्भव है, तुम अपने लिये शोक कर रही हो कि अब शुद्र तुम्हारे ऊपर शासन करेंगे । तुम्हें  देवताओंके लिये भी खेद हो सकता है, जिन्हें अब यज्ञोंमें आहुति नहीं दी जाती, अथवा उस प्रजाके लिय भी, जो वर्षा न होनेके कारण अकाल  से पीड़ित हो रही है ।

देवि! क्या तुम राक्षस-सरीखे मनुष्यों के द्वारा सतायी हुई अरक्षित स्त्रियों एवं बालकोंके लिये शोक कर रही हो? सम्भव हैं, विद्या अब कुकर्मी ब्राह्मणों के चंगुल में पड़ गयी है और ब्राह्मण विप्रद्रोही राजाओंकी सेवा करने लगे हैं, और इसीका तुम्हे दुख हो ।

आजके नाममात्रके राजा तो सोलहों आने कलियुगी हो गये हैं, उन्होंने बड़े-बड़े देशोंको भी उजाड़ डाला है। क्या तुम उन राजाओं या देशोंक लिये शोक कर रही हो । आजकी जनता खान-पान वस्त्र, स्नान और स्त्री-सहवास आदिमें शास्त्रीय नियमोंका पालन न करके स्वेच्छाचार कर रही है।  क्या इसके लिये तुम दुःखी हो? 

मां पृथ्वी अब मुझे समझ आगया भगवान श्रीकृष्णने अवतार लेकर तुम्हारे ऊपर बोझ बने पाप रूपी राजाओंका अंत किया था । उन्हीं भगवान श्रीकृष्ण के अब इस पृथ्वीको त्याग देनेके कारण तुम शायद दुखी हो रही हो। देवी तुम जल्दी से अब मुझे अपने दुखों का कारण बतलाओ ।

एक पैरसे खड़े हुए धर्मकी बातें सुनकर पृथ्वी देवीने कहना आरंभ कर दिया , धर्मदेव  आप तो अच्छी तरह से जानते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण अब अपनी लीलाओं को समाप्त करके अपने स्वधाम गोलोक को चले गए हैं । उनके चले जाने के बाद अब कलीयुग ने पृथ्वी पर अपना अधिकार जमा लिया है ,इसी कारण से मैं दुखी हूं ।  अपने लिए, तुम्हारे लिए और उन महात्मा ऋषियोंके लिए जो सदा ही धर्म में लगे रहते हैं उन सब के लिए दुखी हूँ । समस्त वर्णों के शुद्ध हृदय उन मनुष्यों के लिए दुखी हूं जो कलयुग के प्रभाव से कष्ट भोग रहे हैं ।

धर्म ,द्वापर के अंत में अनेक राक्षसोंने जन्म लेकर मुझे बहुत कष्ट पहुंचाया था । परंतु भगवान श्रीकृष्णने अवतार धारण करके मेरे सारे कष्टोंका अंत किया और मुझे उनके सानिध्य का सौभाग्य प्राप्त हुआ । लेकिन भगवान के जाने के बाद अब वह सौभाग्य भी चला गया है । तुम भी सतयुग में चार पैरों वाले थे किंतु अब कलीयुग के आते ही तुम्हारे तीन पैर चले गए हैं और केवल एक पैर वाले ही हो गए हो इसी कारण से मैं बहुत दुखी हूं ।

पृथ्वी और धर्म इस तरह बातें कर ही रहे थे कि अभिमन्यु पुत्र परीक्षित वहां पर आए और उन्होंने कलियुग को दंड दिया , दंड देकर पृथ्वी और धर्म की रक्षा की ।

इस तरह पांडुवंशी परीक्षित ने कलीयुग के प्रभाव से धर्म और पृथ्वी को अपने जीवन काल में बचाया था ।



Categories: भागवत पुराण

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