देवर्षी नारद के पूर्व जन्म की कथा ।

एक दिन की बात है महर्षि वेदव्यास प्रातःकाल उठकर स्नान आदि करके सरस्वती नदी के तट पर स्थित अपने आश्रम पर बैठे थे । उनोहनें महाभारत और देवताओं के पराक्रम और लीलाओं से पूर्ण अनेक पुराणों का निर्माण किया था लेकिन फिर भी उनके मन को संतोष नही मिला था । उसी समय देवर्षी नारद उस स्थान पर आए , नारदजी को देख कर वेदव्यास ने उनका स्वागत किया और उनसे अपने मन की बात कही । वेदव्यास ने कहा , देवर्षी मैन इतिहास स्वरूप महाभारत की रचना की परंतु फिर भी इसके रचना के बाद जिस संतोष की आशा मैन की थी वह मुझे नही मिला । आप मुझे बताइये मैं अब क्या करूँ , वेदों के सार को दर्शाने वाले इस महान ग्रंथ की रचना के बाद भी मुझे शांति नही मिल रही है ।

वेदव्यास की बाते सुनकर नारद जी ने कहा , आपने वेदों के सार स्वरूप इस महान महाभारत की रचना बहोत ही विस्तार से की है परंतु इसमें आपने भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं का वर्णन विस्तार से नही किया है । भगवान अपनी लीलाओं के गुणगान से अधिक प्रसन्न होते है । आप ऐसे ग्रंथ की रचना कीजिये जो भगवान की भक्ति की वृद्धि कराने वाला हो । भक्ति के अतिरिक्त भगवान को प्रसन्न करने का और कोई मार्ग नही है । व्यासजी , मैं आपको अपनि ही पूर्वजन्म की कथा सुनाते हूँ , की किस तरह भगवान की भक्ति से ही मुझे मनुष्य जन्म से मुक्ति मिली और भगवान का परम भक्त होने का सौभाग्य मिला ।

नारद जी कहते है , पिछले कल्प में मैं एक दासी का पुत्र था । मेरी माता दुसरो के घर मे काम करके अपनी जीविका चलती थी । बहोत मेहनत करके मेरी माँ मेरा लालन पालन करती थी और मुझसे बहोत प्रेम भी करती थी । पिता न होने के कारण मुझे पालने काम मेरी माता का ही था । एक समय की बात है  हमारे गांव में साधुओं की एक टोली आयी । मैं उस टोली के साथ रहने लगा और उन साधुओं की सेवा करने लगा । मैं दिन भर उनके पीछे ही घूमता था । जब साधु लोग खाना खा लेते तो उनका बचा हुआ भोजन मैं खा लेता था । 

इन साधुओं के साथ रहकर मुझे भगवान की कथाओं को सुनने का अवसर मिलता था । साधुओं का सारा दिन भगवान की लीलाओं को सुनने में ही चला जाता था । भगवान के भजन करना, ध्यान करना और लिलाओं की चर्चा करना यही इन साधुओं का काम था । मैं भी उन साधुओं के साथ रहकर मैंने भी भगवान की लीलाओं को सुनता था । भजन भी करने लगा था । व्यासजी मेरा मन पूरी तरह से उन साधुओं की कृपा से भगवान में लग गया था । साधु संग से ही मुझमे भक्ति जागृत होगयी थी और भगवान के दर्शन की लालसा जागृत हुई । 

अब मेरा मन हमेशा भगवान की लीलाओं के चिंतन में ही लगा रहता था । उन साधुओं के संग से मेरा जीवन सफल होगया था । आयु से मैं पांच वर्ष का ही था परंतु मुझे संसार मे कोई रुचि नही थी । मेरा तो मन करता था कि मैं उन साधुओं के साथ ही चला जाऊं । लेकिन मुझे मेरी माता के मोह ने रोक रखा था, मेरे सिवा उसका इस संसार मे कोन था जिसके लिए ओ इतना परिश्रम करती । व्यासजी कुछ दिन ओ साधु लोग मेरे गाँव मे रहकर चले गए । उनके संग से मुझे इस भवसागर से मुक्ति पाने का मार्ग मिल गया था ।

व्यासजी , एक दिन की बात है ,रात के समय मेरी माँ काम करके घर को लौट रही थी । तभी दैव वश एक सांप ने मेरी माँ को काट लिया और उनकी मृत्यु होगयी । गांव के लोगो के सहारे मैंने अपनी माँ का अंतिम संस्कार करवाया । इस समय दुखों से मुक्ति और संसार की अनित्यता को जानने में उन साधुओं के संग से मिला गयाब ही काम आया । मेरी माता की मृत्यु के बाद अब मेरा कोई नही था और मैन उन परब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण की ही शरण ली । इस संसार मे मुझे रोकने वाला कोई नही था मैं अब जिधर चाहे जाने के लीये मुक्त था ।

इसके बाद मैंने अपना गांव छोड़ दिया और  घने जंगल मे जाकर एक पेड़ के नीचे बैठकर भगवान का ध्यान करने लगा । कुछ समय बाद मेरे हृदय में मुझे भगवान मुरलीधर के दर्शन हुए । भगवान अपने हाथों में मुरली लिए मुस्कुरा रहे थे । भगवान के इस दिव्य गोपाल रूप को देखकर मैं अति प्रसन्न होगया , लेकिन कुछ ही क्षण में भगवान की वह दिव्य छवि लुप्त होगयी । मैन फिर से ध्यान लगाकर उस रूप के दर्शन करने का प्रयास किया किन्तु मुझे उस रूप के दर्शन नही हुए । मैं इसी तरह बहोत दिनों तक भगवान के उस दिव्य रूप के दर्शन करने का प्रयास किया किन्तु फिर भी मिझे भगवान के दर्शन नही हुए ।

मेरे ऐसे प्रयासों को देख कर आकाशवाणी हुई , आकाशवाणी ने मुझसे कहा , तुम्हें अब इस जन्म में भगवान के उस रूप के दर्शन नही होंगे । तुम्हरे कर्म भोग समाप्त हो जाने के बाद अगले जन्म में तुम्हे भगवान के उस दिव्य स्वरूप के दर्शन का सौभाग्य मिलेगा । तबसे मैन उस रूप के दर्शन करने का प्रयास छोड़ दिया और भगवान का चिंतन करते अपनी उस जन्म के अंत होने का प्रयास करता रहा । व्यास जी जब मेरी मृत्यु का समय आया , मैन अपना शरीर त्याग दिया और ब्रह्माजी के शरीर मे जाकर मेरी जीवात्मा लीन होगयी ।

पिछले कल्प के अंत के बाद जब ब्रह्माजी ने इस सृष्टि का आरंभ किया तब उनके मरीचि,दक्ष आदि प्रजापतियों की उत्पत्ति हुई तब मैं भी ब्रह्मा जी के मानस पुत्र के रूप में प्रकट होगया । व्यासजी इसके बाद में हमेशा भगवान के ही गुणगान करता संसार मे घूमता रहता हूँ । व्यासजी इसीलिए अब आप भगवान के लीलाओं का विस्तार से वर्णन करके भागवत पुराण की रचना करो ।

इस तरह नारद जी ने अपने पूर्व जन्म की कहानी सुनाते हर व्यासजी को भागवत पुराण की रचना करने का आदेश दिया था ।



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