वशिष्टजी का मैत्रावारुणि नाम क्यों पड़ा

महर्षि वशिष्ठ राजा निमि के कुल गुरु थे । एक समय की बात है राजा निमि ने एक राजसी यज्ञ करने का संकल्प लिया । इस यज्ञ की अवधि 5 वर्ष की थी ।  राजा ने इस यज्ञ के लिए आवश्यक समस्त सामग्रियों को एकत्रित कर दिया । पुलत्स्य, अंगिरा ,गौतम आदि अनेक ऋषियों को , बड़े ही आदर के साथ, इस यज्ञ में सम्मिलित होने का निमंत्रण भेज दिया । इसके पश्चात उन्होंने अपने कुलगुरू महर्षि वशिष्ठ को यज्ञ में आचार्य होने के लिए निवेदन किया ।

राजा निमि के निवेदन को सुनकर महर्षि वशिष्ठ ने कहा, महाराज मैंने पहले ही देवराज इंद्र के यज्ञ का आचार्य होने का कार्य ले लिया है । इस यज्ञ में देवराज इंद्र 500 वर्षों तक दीक्षित रहेंगे । इसीलिए मैं पहले उनका समाप्त कर दूंगा ,उसके बाद तुम्हारा यज्ञ करूँगा । राजा निमि कहते हैं , गुरुवर मैंने सारी सामग्रियां एकत्रित कर ली है । समस्त ऋषियों को निमंत्रण भी भेज दिया है । इसलिए कृपया आप पहले मेरा यज्ञ कराई , उसके बाद इंद्र के यज्ञ में जाइए । वशिष्ठ ने निमि की एक भी बात नहीं सुनी और  इंद्र का यज्ञ कराने चले गए ।

इधर राजाने  गौतम ऋषि को आचार्य बनाकर अपने यज्ञ को संपन्न कर दिया । वशिष्ठ जी इंद्र का यज्ञ पूर्ण करके निमि के पास आए । तब उन्हें पता चला कि, राजा निमि ने अपना यज्ञ पूर्ण करा लिया है । राजा उस समय  गहरी नींद सो रहे थे, इसीलिए सैनिकों ने उन्हें नहीं उठाया । बहुत देरतक राजा नहीं आए यह देख कर  महर्षि वशिष्ठ ने इसे अपना अपमान समझा । इससे महर्षि वशिष्ट बहुत ही क्रोधित हो गए ।  

क्रोधवश महर्षि ने  राजा को विदेह होने का शाप दे दिया । राजा के मन में कोई दुर्भावना नहीं थी । महर्षि वशिष्ठ जी का शाप सुनकर सैनिकों ने राजा को उठाया । राजा  क्रोधित  महर्षि के सामने आकर खड़े हो गए और उनसे  कुछ मीठी बातें कहीं ।   उसके बाद राजा निमि ने भी वशिष्ठ को श्राप दिया कि , जिस शरीर से उत्पन्न क्रोध के कारण तुमने व्यर्थ में ही मुझे शाप दिया है । मैं भी तुम्हें शाप देता हूं की, तुम्हारा यह शरीर नष्ट हो जाए । इस तरह निमि और वशिष्ठ ने एक दूसरे को परस्पर शाप दे दिया ।

राजा निमि के शाप को सुनकर वशिष्ठ जी बड़े व्याकुल हो गए   उनके मन में घबराहट छा गई ।  वे तुरंत ही अपने पिता ब्रह्मा जी के पास गए ।  वशिष्ट ने ब्रह्मा जी से कहा , पिताश्री राजा निमि ने मुझे शाप दे दिया है । अब मैं क्या करूं , मेरा अगला जन्म कहां होगा, यह आप मुझे कृपया बताने की कृपा कीजिए । मुझसे यह कैसे भूल हो गई है , जिसके कारण मुझे अपने इस शरीर से हाथ धोना पड़ गया । 

अपने पुत्र वशिष्ठ की बात सुनकर ब्रह्मा जी कहते हैं । पुत्र , मित्र और वरुण नाम के दो महान ऋषि है । यह बड़े ही धर्मात्मा है तुम इनके पुत्र रूप में प्रकट हो जाओगे । अपने स्थूल शरीर से इनके तेज में जाकर पड़े रहो । आगे चलकर इनके तेज से ही तुम्हें दूसरा शरीर प्राप्त होगा ।  तुम माता के गर्भ से उत्पन्न ना होने के कारण  अयोनिज कहलाओगे । पिता की बात मानकर वशिष्ट जी मित्र और वरुण के तेज में अपने स्थूल शरीर से पड़े रहे ।

एक समय की बात है, उर्वशी नाम की एक परम सुंदरी अप्सरा, मैत्रावारुणि ऋषियों के आश्रम के समीप, नदी में जल क्रीड़ा कर रही थी । उस अप्सरा उर्वशी को देखकर, मैत्रावरुण दोनों उस पर मोहित हो गए । उनोहनें  उस अप्सरा से निवेदन किया कि,  वे उनके आश्रम पर ही रुक जाए । अप्सरा दोनों ऋषियों के मन का भाव समझ गई थी । अप्सरा ने ऋषियों की बात मानकर, वही रुकने के लिए तैयार हो गई । जब मैत्रावरुण ऋषि, अप्सरा से बात कर रहे थे, तब इन दोनों ऋषियों का वीर्यपात हो गया । वीर्य वहीं धरती पर पड़ गया , दोनों राशियों के वीर्य से ,दो बालक उत्पन्न हुए । एक बालक का नाम अगस्त्य पड़ा और दूसरे बालक  का नाम वशिष्ठ रखा गया ।

अगस्त्य नाम का बालक कुछ ही दिनों के बाद तपस्या करने के हेतु वन में चला गया ।  वशिष्ठ को महाराज इक्ष्वाकु  ने अपना पुरोहित नियुक्त कर दिया । उस बालक का भरण पोषण राजा इक्ष्वाकु ने किया । यही बालक आगे चलकर इक्ष्वाकु वंश का कुल गुरु बना । इस तरह मित्रा वरुण के तेज से उत्पन्न होने के कारण वशिष्ठ जी को मैत्रावारुणि कहा जाता है ।

ब्राह्मणों का कभी भी क्रोध नहीं करना चाहिए । उन्हें सदैव अपने क्रोध पर नियंत्रण रखना चाहिए । दूसरों का हित करने के लिए सदा तत्पर रहना चाहिए । सभी प्राणियों के प्रति मन में समान भाव रखना चाहिए । राजाओं को अपने गुरु का सदैव आदर करना चाहिए । किंतु अपने स्वभाव के कारण कुछ राजा कठोर मन वाले होते हैं और कुछ शांत मनवाले । इसीलिए राजा निमि ने, कठोर मन होने के कारण अपने गुरु को शाप दे दिया था । ययाति ने शांत स्वभाव होने के कारण गुरु से शाप पाने के बाद भी, अपने गुरु शुक्राचार्य को कोई शाप नहीं दिया था ।

उधर राजा निमि ने भी वशिष्ठ जी से शाप पाकर , भगवती जगदंबा की कृपा से, समस्त समस्त जीवो की आंखों में वायु बनकर विचरने लगे । उसके बाद आदिशक्ति की कृपा से उन्होंने कभी शरीर धारण नहीं किया ।

इस प्रकार वशिष्ट जी का नाम मैत्रावारुणि पड़ा ।



Categories: देवी भागवत पुराण

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