एक समय की बात है, नारद मुनि के मन में भगवान विष्णु के दर्शन करने की इच्छा हुई । तब स्वर्ग से वैकुंठ के लिए चल दिये , नारद मुनि को वहां पर भगवान विष्णु के दर्शन हुए । विष्णु अपने हाथों में शंख, चक्र , गदा और कमल लिए हुए अति सुंदर दिख रहे थे । उस समय ,भगवान विष्णु और उनकी अर्धांगिनी देवी लक्ष्मी एक दूसरे के साथ हास विलास कर रहे थे । नारद मुनि को आते देख ,देवी लक्ष्मी उस स्थान से उठ कर चली गई ।
जब देवी लक्ष्मी भवन में चली गई, तो नारद मुनि ने भगवान विष्णु से पूछा ,प्रभु देवी लक्ष्मी मुझे देखकर इस तरह अपने भवन में क्यों चली गई । मैं कोई नीच व्यक्ति तो नहीं, मेरी समस्त इंद्रियों मेरे वश में है । मैं किसी पर भी कुदृष्टि नहीं डालता ,फिर देवी लक्ष्मी अंदर क्यों गई । नारद की बातें सुनकर भगवान विष्णु कहते हैं, देवर्षि माया को जितना बड़ा कठिन है । सनक आदि मुनियों के लिए भी इस माया को जीतना असंभव है । फिर नारद और अन्य मुनियों की गणना ही क्या है । माया किसी भी समय मनुष्य की बुद्धि हर सकती है । इसी कारणवश देवी लक्ष्मी उठकर भवन में चली गई ।
देवर्षि नारद ने कहा, प्रभु मैंने माया को जीत लिया है, माया मुझ पर कोई प्रभाव नहीं डाल सकती । मैं सदा ही सदाचार का पालन करता हूं । नारद की बातें सुनकर भगवान विष्णु मुस्कुराए और कहने लगे, नारद यह बात तुम किसी के सामने भी नहीं कहना । क्योंकि माया को जीतना कठिन है , माया सदा प्राणियों को भ्रम में डालती रहती है । काम, क्रोध, मद, मोह, मत्सर और लोभ इसके ही रूप है, इतना कहकर भगवान विष्णु चुप हो गए । तब देवर्षि नारद कहते हैं, प्रभु मैं आपकी इस माया का स्वरूप देखना चाहता हूं । यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो ,कृपया मुझे अपनी इस माया का वास्तविक रूप दिखाइए । क्योंकि इसे देखने और जानने की उत्कंठा मेरे मन में उत्पन्न हो गई है । इसीलिए आप उस माया को दिखा कर, समझा कर मेरे मन को शांत कीजिए ।
नारद की यह प्रार्थना सुनकर भगवान विष्णु कहते हैं, नारद माया तो सर्वव्यापी है । वह त्रिगुणात्मिका है ,समस्त जीवो में रहती है । यदि तुम उसे देखना चाहते हो तो चलो मेरे गरुड पर सवार हो जाओ । मैं तुम्हें मेरी माया के दर्शन कराता हूं । इतना कहकर भगवान विष्णु स्वयं ही अपने गरुड़ पर बैठगए और उनके पीछे नारद भी बैठगए । भगवान विष्णु का आदेश पाते ही गरुड़ ने उड़ना आरंभ कर दिया ,भगवान विष्णु जिस दिशा को दिखाते गरुड़ उसी दिशा में चले जाते । ऐसे अनेक वनों, नदियों ,पर्वतों, नगर, छोटे-छोटे गांव और जंगलों में घूम रहे प्राणियों को देखते हुए भगवान विष्णु नारद जी के साथ कन्याकुब्ज पहुंचे ।
कन्याकुब्ज में एक बड़ा सुंदर सरोवर था ,भगवान विष्णु और नारद सरोवर के समीप गए । दोनों ही गरुड़ के ऊपर से उतर गए और उस सरोवर के पास भ्रमण करने लगे । कुछ समय बाद भगवान विष्णु ने नारद जी से कहा, नारद तुम अभी सरोवर में जाकर स्नान करो । भगवान विष्णु की यह बात सुनकर ,नारदजी अपनी वीणा भगवान विष्णु के पास रखकर सरोवर में गए और स्नान करने लगे । स्नान करते वक्त नारद ने, उस सरोवर में डुबकी लगाई और ऊपर उठे । सरोवर में डुबकी लगाकर उठते ही, नारद ने देखा कि उनका शरीर स्त्री का हो गया है । दूर खड़े भगवान विष्णु नारद को देख कर मुस्कुरा रहे थे, स्त्री बनने के बाद नारद की अपनी पूर्व स्मृति भी चली गई । तब भगवान विष्णु नारद की वीणा लेकर वहां से गरुड़पर बैठकर चले गए ।
स्त्री बने हुए नारद सरोवर के किनारे बैठकर अपने पुरुष होने और स्मृति खोने कके कारण विचार करने लगे । मैं कौन हूं अब मुझे क्या करना चाहिए ,कहां जाऊं स्त्रीरूपी नारद ऐसा विचार कर रहे थे । उस समय सरोवर के तटपर तालध्वज नाम के एक राजा अपनी सेना सहित पधारे । बहुत ही सुंदर और आकर्षक स्त्री रूपी नारद को देखकर,तालध्वज ने पूछा, देवी तुम कौन हो, तुम्हारे पिता कौन है ,पति कौन है और तुम यहां क्या कर रही हो । तालध्वज की बातें सुनकर स्त्रीरूपी नारद कहते हैं, मुझे पता नहीं मैं कौन हूं और कहां से आई हूं, इस समय मेरा कोई भी रक्षक नहीं है । तब तालध्वज ने कहा, देवी तुम मेरेसाथ मेरे महल चलो, मैं तुम पर मोहित हो गया हूं और तुम्हें अपनी पत्नी बनाना चाहता हूं । तालध्वज की बातें सुनकर स्त्री रूपी नारद भी उसके महल जाने के लिए तैयार हो गए ।
तालध्वज स्त्री रूपी नारद को अपने महल ले गए और एक शुभ मुहूर्त देखकर उन से विवाह किया । इसकेबाद तालध्वज और स्त्रीरूपी नारद दोनों ही, अनेक स्थानों में भ्रमण करते हैं और एक दूसरे के साथ समय व्यतीत करते हैं । इस तरह बारह वर्ष बीत जाने के बाद स्त्रीरूपी नारद के गर्भ से एक पुत्र उत्पन्न हुआ । जिसे देखकर स्त्रीरूपी नारद अति प्रसन्न हुए । अब उनका समय उस पुत्र के लालन-पालन में ही जाता था । इस तरह कई वर्षों में नारद ने बारह पुत्र उत्पन्न किए । यह सारे पुत्र बड़े हो गए और नारद ने अपने सारे पुत्रों का विवाह किया । घर में पुत्रवधू को देख अति प्रसन्न हुए । उस समय नारद अपने वास्तविक रूप को पूरी तरह से भूल गए थे । इस तरह माया के प्रभाव में पढ़कर स्वयं को ही भूले हुए देवऋषि नारद के, कई पौत्र और पुत्रियां भी हुए ।
स्त्रीरूपी नारद, कभी तो अपने बड़े परिवार को देखकर बहुत खुश रहते और उनमें से कुछ को जब कोई पीड़ा होती तो स्वयं भी पीड़ा भोगते । एक समय की बात है तालध्वज के राज्य के, पड़ोस के राजा ने उनके राज्य पर आक्रमण कर दिया । तब स्त्रीरूपी, नारद के पुत्र और पौत्र भी युद्ध में गए । उस युद्ध में देवऋषि नारद के सारे पुत्र और पौत्र मारे गए । तब नारद स्वयं ही युद्ध भूमि में जाकर अपने उन पुत्रों को खोने के कारण विलाप करने लगे । राजा तालध्वज भी उनके साथ थे और वे भी बड़े दुखी थे । इस तरह माया से ठगे गए स्त्रीरूपी नारद उन पुत्र और पौत्रों की मृत्यु के कारण उस युद्ध भूमि में रो रहे थे ।
स्त्री रूपी नारद को युद्ध भूमि में यूं रोते हुए देख, भगवान विष्णु एक ब्राह्मण के रूप में वहां आकर उन्हें समझाते हैं । देवी तुम क्यों रोती हो, संसार में मृत्यु तो सभी की होती है, इसीलिए शोक नहीं करना चाहिए । इस संसार में ना तो कोई किसी का पुत्र है, ना कोई किसी का पिता है, ना कोई किसी की माता है, ये सब रिश्ते नाते माया जनित है । अपने दुख को छोड़कर, तुम इनकी अंतिम क्रिया करने का कार्य करो । ब्राह्मण रूपी विष्णुजी की बातें सुनकर, स्त्रीरूपी नारद और तालध्वज ने अपने उन मरे हुए पत्रों का अंतिम संस्कार किया । उसके बाद ब्राह्मणरूपी विष्णुजी ने कहा, देवी अब तुम अपने पुत्र और पौत्रोंकी आत्मा की शांति के लिए तीर्थ में जाकर स्नान करो । ऐसा कहकर भगवान विष्णु स्वयं आगे होकर स्त्रीरूपी नारद और तालध्वज को उनके संबंधियों के साथ पुनतीर्थ में ले जाते हैं ।
पुनतीर्थ में एक बड़ा सरोवर था, ब्राह्मणरूपी विष्णुजी, स्त्रीरूपी नारद से कहते हैं ,देवी अब तुम इस सरोवर में स्नान करके, अपने पुत्र और पौत्रों की आत्मा के शांति के लिए पूजा करो । देवी तुम अपने इन पुत्र और पौत्रों के लिए शोक मत करो । तुम्हारे नजाने कितने जन्म हो गए , उन करोड़ों जन्मों में, तुम्हारे करोड़ों पति, करोड़ों पुत्र और पुत्री रहे होंगे । आज उन सब की स्मृति तुम्हें नहीं है, इसीलिए तुम अपने इस शोक को त्याग दो और अपने कर्तव्य का पालन करो । ब्राह्मणरूपी विष्णु की बातें मानकर स्त्रीरूपी नारद स्नान करने के लिए उस सरोवर में जाते हैं और पूजा करते हैं । उस सरोवर में स्त्री रूपी नारद डुबकी लगाते हैं और जब उठते हैं तो वह स्वयं को पुरुष रूप में पाते हैं । धीरे-धीरे उनकी स्मृति भी वापस आ जाती है । सरोवर से बाहर आनेके बाद नारद को वहां पर भगवान विष्णु के दर्शन होते हैं, जिन्हें देखकर वह अति प्रसन्न हो जाते हैं ।
जब राजा तालध्वज देखते हैं कि, उनकी पत्नी के स्थान पर सरोवर से कोई एक पुरुष निकला, तो वह विष्णु जी से पूछते हैं, प्रभु मेरी पत्नी कहां चली गई । विष्णुजी कहते हैं तालध्वज इस संसार में कोई किसी का नहीं है । जिस तरह वह स्त्री ,तुम्हें सरोवर के पास मिली थी उसी तरह सरोवर के पास ही तुमसे बिछड़ गयी । इसीलिए तुम उसे भूलजाओ और भगवान के ध्यान में लग जाओ । भगवान विष्णु की बातें मानकर, तालध्वज अपना राज्य छोड़कर जंगल में चले जाते हैं ।
सरोवरसे, पुरुष रूप धारण करके बाहर निकले हुए नारद को, भगवान विष्णु मुस्कुरा कर कहते हैं, नारद अब तुम्हें मेरी माया के दर्शन हो गए । तुमने देखा कि मेरी माया कितनी बलवान है, अब मुझे विश्वास है कि माया को देखने की जो तुम्हारे मन में इच्छा जागी थी, वह पूर्ण हो गई । मैं अब वैकुंठ जा रहा हूं ,तुम चाहो तो मेरे साथ वैकुंठा आ सकते हो ,या अपनी इच्छा के अनुरूप कहीं और जा सकते हो । निर्णय लेने के लिए तुम स्वतंत्र हो, भगवान विष्णु की बातें सुनकर ,नारद कहते हैं, प्रभु आपने मुझे माया के दर्शन कराया, इसीलिए आपका बहुत धन्यवाद । इस समय मैं ब्रह्मलोक जाना चाहता हूं ,आप वैकुंठ जाइए । तब भगवान विष्णु वैकुंठ चले गए और नारद जी ब्रह्मलोक को गए ।
इस तरह भगवान विष्णुने नारद जी को माया के दर्शन कराने के लिए स्त्री बना दिया था ।
Categories: श्री कृष्ण की कथाएँ
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