कृष्णा भाग १० – कंसके हाथसे छूटकर योगमायाका आकाशमें जाकर भविष्यवाणी करना

Krishna Episode -10 Yogmayas prophecy

जब वसुदेवजी लौट आये, तब नगरके बाहरी और भीतरी सब दरवाजे अपने-आप ही पहलेकी तरह बंद हो गये। इसके बाद नवजात शिशुके रोनेकी ध्वनि सुनकर द्वारपालोंकी नींद टूटी ⁠।⁠ वे तुरन्त भोजराज कंसके पास गये और देवकीको सन्तान होनेकी बात कही। कंस तो बड़ी आकुलता और घबराहटके साथ इसी बातकी प्रतीक्षा कर रहा था ⁠।⁠ द्वारपालोंकी बात सुनते ही वह झटपट पलँगसे उठ खड़ा हुआ और बड़ी शीघ्रतासे सूतिकागृहकी ओर झपटा। इस बार तो मेरे कालका ही जन्म हुआ है, यह सोचकर वह विह्वल हो रहा था और यही कारण है कि उसे इस बातका भी ध्यान न रहा कि उसके बाल बिखरे हुए हैं। रास्तेमें कई जगह वह लड़खड़ाकर गिरते-गिरते बचा ⁠और कुछ ही समय में वह बंदीगृहमें पहुँचगया । वहाँ द्वारपर पहुँचते ही उसने तुरंत पूछा – ‘कौन-सा बच्चा पैदा हुआ है ? उसे शीघ्र मेरे हवाले कर दो’ ऐसी बातें कहकर वह वहाँ जोर-जोरसे गर्जन- तर्जन करने लगा । तब देवकीके घरमें एकत्रित हुई सारी स्त्रियाँ हाहाकार करने लगीं।

 

कंसके ऐसे वचन सुनकर सती देवकीने बड़े दुःख और करुणाके साथ अपने भाई कंससे कहा- प्रभो , यह तो कन्या पैदा हुई है, ऐसा कहकर वह कंससे  उसके लिए याचना करती हुई बोली – ‘मेरे हितैषी भाई! यह कन्या तो तुम्हारी पुत्रवधूके समान है। स्त्रीजातिकी है; तुम्हें स्त्रीकी हत्या कदापि नहीं करनी चाहिये ⁠।⁠ भैया! तुमने दैववश मेरे बहुत-से अग्निके समान तेजस्वी बालक मार डाले। अब केवल यही एक कन्या बची है, इसे तो मुझे दे दो ⁠।⁠ अवश्य ही मैं तुम्हारी छोटी बहिन हूँ। मेरे बहुत-से बच्चे मर गये हैं, इसलिये मैं अत्यन्त दीन हूँ। मेरे प्यारे और समर्थ भाई! तुम मुझ मन्दभागिनीको यह अन्तिम सन्तान अवश्य दे दो’ ⁠।⁠ कन्याको अपनी गोदमें छिपाकर देवकीजीने अत्यन्त दीनताके साथ रोते-रोते याचना की। परन्तु कंस बड़ा दुष्ट था। उसने देवकीजीको झिड़ककर उनके हाथसे वह कन्या छीन ली ⁠।⁠ कंस उस कन्याको देखकर उसकी ओर आकृष्ट हुआ और मन-ही- मन प्रसन्नताका अनुभव करने लगा ।

 

अभी उसके केश गर्भस्थ जलसे भीगे थे। उस समय वह पृथ्वीके समान ही जान पड़ती थी । उस दुरात्मा पुरुष कंसने अपनी उस नन्हीं-सी नवजात भानजीके पैर पकड़कर उसे घुमाया और तुच्छ मानकर ऊपरसे ही सहसा शिलापर दे मारा । स्वार्थने उसके हृदयसे सौहार्दको समूल उखाड़ फेंका था । वह शिलापृष्ठपर फेंकी गयी, परंतु श्रीकृष्णकी वह छोटी बहिन साधारण कन्या तो थी नहीं, देवी थी;उस शिलापर चूर-चूर होनेसे पहले ही आकाश में उड़ गयी। उस गर्भदेहको त्यागकर कंसको ललकारती हुई वह सहसा आकाशमें जा पहुँची। उस समय उसके लम्बे-लम्बे केश खुले हुए थे ।  अपने बड़े-बड़े आठ हाथोंमें आयुध लिये हुए दीख पड़ी ⁠। वह दिव्य माला, वस्त्र, चन्दन और मणिमय आभूषणोंसे विभूषित थी। उसके हाथोंमें धनुष, त्रिशूल, बाण, ढाल, तलवार, शंख, चक्र और गदा – ये आठ आयुध थे ⁠।⁠ सिद्ध, चारण, गन्धर्व, अप्सरा, किन्नर और नागगण बहुत-सी भेंटकी सामग्री समर्पित करके उसकी स्तुति कर रहे थे।

 

वह देवी अपने अङ्गोंपर नील और पीत वस्त्र धारण किये हुए थी। उसके उन्नत उरोज हाथी के कुम्भस्थलके समान जान पड़ते थे । उसका जघनप्रदेश रथके समान विस्तृत था । मुख चन्द्रमाके सदृश मनोरम था । वह चार भुजाओंसे सुशोभित थी । उसकी अङ्गकान्ति विद्युत्के समान प्रकाशित हो रही थी। दोनों नेत्र प्रभातकालके सूर्यकी भाँति लाल थे। मेघोंके समान उन्नत उरोजोंवाली वह देवी बादलोंसे युक्त संध्याके समान सुशोभित हो रही थी । अन्धकारसे आच्छन्न हुई रात्रिके समय जब कि भूतोंके समुदाय सब ओर भरे हुए थे, वह दीप्सिमती देवी नाचती, हँसती और चारों ओर उछलती-कूदती हुई अद्भुत शोभा पा रही थी । उसका स्वरूप बड़ा ही भयंकर था । वह आकाशमें पहुँचकर परम उत्तम मधुका पान तथा बड़े जोरसे अट्टहास करने लगी। 

 

उस समय देवीने कंससे यह कहा – ‘रे मूर्ख! मुझे मारनेसे तुझे क्या मिलेगा? तेरे पूर्वजन्मका शत्रु तुझे मारनेके लिये किसी स्थानपर पैदा हो चुका है। अब तू व्यर्थ निर्दोष बालकोंकी हत्या न किया कर’ ⁠।⁠ तूने अपने ही विनाशके लिये जो मुझे मार डालनेका प्रयत्न किया है और सहसा उठाकर शिलापर दे मारा है, उसके कारण मैं भी तेरे अन्तकालमें जिस समय तू शत्रुके द्वारा घसीटा जा रहा होगा, अपने हाथोंसे तेरी इस देहको फाड़कर तेरा गरम-गरम रक्त पीऊँगी’ । कंससे इस प्रकार कहकर भगवती योगमाया वहाँसे अन्तर्धान हो गयीं और अपने गणोंसहित आकाश और देवलोकमें विचरने लगी और पृथ्वीके अनेक स्थानोंमें विभिन्न नामोंसे प्रसिद्ध  हुई ⁠।

 

⁠इस देवीको प्रजापालक भगवान् विष्णुके अंशसे उत्पन्न हुई समझना चाहिए । वह एक होती हुई अनंशा अंशरहित अर्थात् अविभक्त थी, इसलिये एकानंशा कहलाती थी । योगबलसे कन्यारूपमें प्रकट हुई वह देवी भगवान्  श्रीकृष्णकी रक्षाके लिये आविर्भूत हुई थी । यदुकुलमें उत्पन्न हुए समस्त देवता उस देवीका आराध्यदेवके समान पूजन करते थे; क्योंकि उसने अपने दिव्य देहसे श्रीकृष्णकी रक्षा की थी ।



Categories: कृष्ण अवतार, भागवत पुराण, श्री कृष्ण की कथाएँ

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