
Liberating Shakatasur
पूर्व समय की बात है हिरण्याक्ष नामक दैत्य का पुत्र था उत्कच। वह बहुत बलवान् एवं मोटा-तगड़ा था। एक बार यात्रा करते समय उसने लोमश ऋषिके आश्रमके वृक्षोंको कुचल डाला। लोमश ऋषिने क्रोध करके शाप दे दिया—‘अरे दुष्ट! जा, तू देहरहित हो जा।’ उसी समय साँपके केंचुलके समान उसका शरीर गिरने लगा। वह धड़ामसे लोमश ऋषिके चरणोंपर गिर पड़ा और प्रार्थना की—‘कृपासिन्धो! मुझपर कृपा कीजिये। मुझे आपके प्रभावका ज्ञान नहीं था। मेरा शरीर लौटा दीजिये।’ लोमश जी प्रसन्न हो गये । महात्माओंका शाप भी वर हो जाता है। उन्होंने कहा—‘वैवस्वत मन्वन्तरमें श्रीकृष्णके चरण-स्पर्शसे तेरी मुक्ति हो जायगी।’ वही असुर इस जन्म में शकटासुर नाम से जाना जाता था और वह कंस का सखा बन गया था । कंस के कहने पर शकटासुर कृष्ण को मारने की इच्छा से गोकुल आ पहुंचा ।
उस समय भगवान श्रीकृष्ण तीन महीने के हो गये थे और उनके करवट बदलनेका अभिषेक-उत्सव मनाया जा रहा था। उसी दिन उनका जन्मनक्षत्र भी था। घरमें बहुत-सी स्त्रियोंकी भीड़ लगी हुई थी। गाना-बजाना हो रहा था। उन्हीं स्त्रियोंके बीचमें खड़ी हुई सती साध्वी यशोदाजीने अपने पुत्रका अभिषेक किया। उस समय ब्राह्मणलोग मन्त्र पढ़कर आशीर्वाद दे रहे थे । नन्दरानी यशोदाजीने ब्राह्मणोंका खूब पूजन-सम्मान किया। उन्हें अन्न, वस्त्र, माला, गाय आदि मुँहमाँगी वस्तुएँ दीं। जब यशोदाने उन ब्राह्मणोंद्वारा स्वस्तिवाचन कराकर स्वयं बालकके नहलाने आदिका कार्य सम्पन्न कर लिया, तब यह देखकरकि मेरे लल्लाके नेत्रोंमें नींद आ रही है, अपने पुत्रको धीरेसे एक छकड़ेके नीचे शय्यापर सुला दिया । थोड़ी देरमें श्यामसुन्दरकी आँखें खुलीं, तो वे स्तन-पानके लिये रोने लगे। उस समय मनस्विनी यशोदाजी उत्सवमें आये हुए व्रजवासियोंके स्वागत-सत्कारमें बहुत ही तन्मय हो रही थीं। इसलिये उन्हें श्रीकृष्णका रोना सुनायी नहीं पड़ा। शकटासुर ने देखा की कृष्ण अकेले छकड़े के निचे अकेले ही है , उसने सोचा की कृष्ण पर वार करने का यही अवसर है और वह आकर छकड़े पर बैठकर छकड़े को निचे दबाने लगा ।
भगवान श्रीकृष्ण जो अन्तर्यामी और समस्त लोकों के एक मात्रा स्वामी है शकटासुर की इस मनशा को जान ली और श्रीकृष्ण रोते-रोते अपने पाँव उछालने लगे । उनके पाँव अभी लाल-लाल कोंपलोंके समान बड़े ही कोमल और नन्हे-नन्हे थे। परन्तु वह नन्हा-सा पाँव लगते ही विशाल छकड़ा उलट गया। उस छकड़ेपर दूध-दही आदि अनेक रसोंसे भरी हुई मटकियाँ और दूसरे बर्तन रखे हुए थे। वे सब-के-सब फूट-फाट गये और छकड़ेके पहिये तथा धुरे अस्त-व्यस्त हो गये, उसका जूआ फट गया और इसके साथ शकटासुर को भी उसके शाप से मुक्ति मिल गयी । करवट बदलनेके उत्सवमें जितनी भी स्त्रियाँ आयी हुई थीं, वे सब और यशोदा, रोहिणी, नन्दबाबा और गोपगण इस विचित्र घटनाको देखकर व्याकुल हो गये। वे आपस में कहने लगे-‘अरे, यह क्या हो गया? यह छकड़ा अपने-आप कैसे उलट गया?’ । वे इसका कोई कारण निश्चित न कर सके। वहाँ खेलते हुए बालकोंने गोपों और गोपियोंसे कहा कि ‘इस कृष्णने ही तो रोते-रोते अपने पाँवकी ठोकरसे इसे उलट दिया है, इसमें कोई सन्देह नहीं’ । परन्तु गोपोंने उसे ‘बालकोंकी बात’ मानकर उसपर विश्वास नहीं किया। ठीक ही है, वे गोप उस बालकके अनन्त बलको नहीं जानते थे , वे गोप इस बात को नहीं जानते थे की जो उनके सामने शिशु रूप में है वे स्वयं परब्रह्म है । जिनके इच्छा मात्र से अनंत ब्रह्मांडो का उदय और अस्त होता है ।
यशोदाजीने समझा यह किसी ग्रह आदिका उत्पात है। उन्होंने अपने रोते हुए लाड़ले लालको गोदमें लेकर ब्राह्मणोंसे वेदमन्त्रोंके द्वारा शान्तिपाठ कराया और फिर वे उसे स्तन पिलाने लगीं । बलवान् गोपोंने छकड़ेको फिर सीधा कर दिया। उसपर पहलेकी तरह सारी सामग्री रख दी गयी। ब्राह्मणोंने हवन किया और दही, अक्षत, कुश तथा जलके द्वारा भगवान् और उस छकड़ेकी पूजा की । जो किसीके गुणोंमें दोष नहीं निकालते, झूठ नहीं बोलते, दम्भ, ईर्ष्या और हिंसा नहीं करते तथा अभिमानसे रहित हैं-उन सत्यशील ब्राह्मणोंका आशीर्वाद कभी विफल नहीं होता । यह सोचकर नन्दबाबाने बालकको गोदमें उठा लिया और ब्राह्मणोंसे साम, ऋक् और यजुर्वेदके मन्त्रोंद्वारा संस्कृत एवं पवित्र ओषधियोंसे युक्त जलसे अभिषेक कराया । उन्होंने बड़ी एकाग्रतासे स्वस्त्ययनपाठ और हवन कराकर ब्राह्मणोंको अति उत्तम अन्नका भोजन कराया । इसके बाद नन्दबाबाने अपने पुत्रकी उन्नति और अभिवृद्धिकी कामनासे ब्राह्मणोंको सर्वगुणसम्पन्न बहुत-सी गौएँ दीं। वे गौएँ वस्त्र, पुष्पमाला और सोनेके हारोंसे सजी हुई थीं। ब्राह्मणोंने उन्हें आशीर्वाद दिया । यह बात स्पष्ट है कि जो वेदवेत्ता और सदाचारी ब्राह्मण होते हैं, उनका आशीर्वाद कभी निष्फल नहीं होता ।
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