कृष्ण भाग ४ -वसुदेव और देवकी के पहले पुत्र का जन्म और वासुदेव द्वारा बालक को कंस को देने जाना

कंस के कोप से देवकी को बचाकर वसुदेवजी अपने घर चले आये । देवकी बड़ी सती-साध्वी थी। सारे देवता उसके शरीरमें निवास करते थे। देवी स्वरूपा देवकी वसुदेवजीके साथ मर्यादाके अनुसार रहने लगीं। उपयुक्त समय आनेपर उन्हें गर्भ रह गया। दसवें महीनेके अन्तमें उन्होंने एक श्रेष्ठ पुत्र प्रसव किया। उस बालकके सभी अंग बड़े ही सुडौल थे। 

पहले पुत्रका नाम था कीर्तिमान्। वसुदेवजीने वचन अनुसार उसे  कंसको देनेका निर्णय किया । ऐसा करते समय उन्हें कष्ट तो अवश्य हुआ, परन्तु उससे भी बड़ा कष्ट उन्हें इस बातका था कि कहीं मेरे वचन झूठे न हो जायँ ⁠।⁠ सत्यसन्ध पुरुष बड़े-से-बड़ा कष्ट भी सह लेते हैं, ज्ञानियोंको किसी बातकी अपेक्षा नहीं होती, नीच पुरुष बुरे-से-बुरा काम भी कर सकते हैं और जो जितेन्द्रिय हैं,जिन्होंने भगवान्‌को हृदयमें धारण कर रखा है, वे सब कुछ त्याग सकते हैं ⁠।⁠

पुत्रके पैदा होते ही इसतरह निर्णय करके प्रसिद्ध सत्यवादी महाभाग वसुदेवजीने  देवमाता देवकीसे कहा, देवी, मैं पुत्र-समर्पणकी प्रतिज्ञा कर चुका हूँ, यह बात तुमसे छिपी नहीं है।  उस समयकी कठिन परिस्थितिमें प्रतिज्ञा करके ही मैंने तुम्हें बचाया था, अतः सुन्दर चोटीसे शोभा पानेवाली प्रिये! तुम्हारे चचेरे भाई कंसको मैं यह पुत्र दे देनेका विचार कर रहा हूँ। कंस महान् नीच है अथवा दैव ही नाश करनेपर आ तुला है, ऐसी स्थितिमें तुम क्या कर सकोगी? विचित्र कर्मोंके परिपाकको आत्मज्ञान-शून्य प्राणी किसी प्रकार भी नहीं जान सकते। यह निश्चय है, सम्पूर्ण प्राणी कालके पाशमें जकड़े हुए हैं। अपना किया हुआ कर्मफल उन्हें अवश्य भोगना पड़ता है, चाहे वह कर्म शुभ हो अथवा अशुभ। जीवके प्रारब्धकी रचना ब्रह्माके द्वारा हुई है। वे भलीभाँति सोच-समझकर ही सब कराते हैं। 

देवकीने कहा, स्वामिन्! पूर्वजन्मके पापोंका परिमार्जन करनेके लिये प्रायश्चित्त किया जा सकता है, महात्मा पुरुषोंने धर्म-शास्त्रोंमें इसका स्पष्ट उल्लेख किया है। इसीलिए, आप ही बतलाइये कि प्रायश्चित्त करनेपर मनुष्य पापोंसे छूट सकता है या नहीं? यदि नहीं, तब तो धर्मशास्त्रके प्रणेता याज्ञवल्क्यादि मुनियोंके वचनोंका कोई मूल्य ही नहीं रह जाता। यही नहीं? किंतु दैवके अमिट मान लेनेपर तो आयुर्वेद, मन्त्रवाद तथा अनेक प्रकारके उद्यम,सभी व्यर्थ हो जाते हैं; फिर तो जितने आप्तवाक्य हैं, सभी प्रमाणशून्य हो जाते हैं। उद्यम करनेपर सफलता प्राप्त हो जाती है,इस विषयमें प्रत्यक्ष प्रमाण मिल रहा है; अतएव इस अवसरपर सोच-समझकर कोई ऐसा उपाय करना चाहिये, जिसके परिणामस्वरूप मेरे इस दयापात्र बच्चेकी प्राण-रक्षा हो जाय।

 वसुदेवजी बोले,देवी, मैं तुमसे यह सच्ची बात बता रहा हूँ, सुनो,‘उद्यम अवश्य करना चाहिये, परंतु फल दैवकी कृपापर निर्भर है। इस जगत्‌में जितने प्राणी हैं, उनका तीन प्रकारके कर्मोंसे सम्बन्ध है। प्राचीन रहस्यके वेत्ता विद्वान् वेदों और शास्त्रोंमें इस विषयका प्रतिपादन करते हैं। सुमध्यमे! उन तीन प्रकारके कर्मोंके नाम हैं, संचित, प्रारब्ध और वर्तमान। वामोरु! जितने प्राणी हैं, उनके जन्म लेनेमें शुभाशुभ कर्म ही बीज हैं; अनेक जन्मोंके उपार्जित कर्म समय पाकर फल देनेके लिये सामने उपस्थित हो जाते हैं। प्राणी पूर्वशरीरका परित्याग करके कर्मानुसार स्वर्ग अथवा नरक भोगनेमें परतन्त्र रहता है। उसे दिव्य देहकी प्राप्ति हो अथवा यातनादेहकी,इसमें उसका अपना कर्म ही कारण है। स्वर्ग अथवा नरकमें जाकर जीव विविध भोग भोगनेमें प्रवृत्त हो जाता है। भोग समाप्त होते ही उत्पन्न होनेका समय सामने आ जानेके कारण उसे जन्म लेना पड़ता है। 

स्थूलदेहके साथ संयोग होनेपर उसकी ‘जीव’ संज्ञा हो जाती है। उसी क्षण संचित कर्मोंसे उसका सम्बन्ध हो जाता है। अतएव शुभ एवं अशुभ,सभी कर्मफल इस शरीरसे भोगने ही पड़ते हैं। सुलोचने! प्राणीके लिये प्रारब्ध कर्मोंका भोग अनिवार्य है। प्रिये! प्रायश्चित्तके द्वारा वर्तमान कर्म नष्ट हो सकते हैं। यदि यथार्थ रूपसे प्रायश्चित्त किया जाय तो संचित कर्मोंका नाश भी यथाशीघ्र हो सकता है। किंतु प्रारब्ध कर्मोंका नाश तो भोगपर ही निर्भर है। अतएव सब प्रकारसे विचार करनेपर यही निष्कर्ष निकलता है कि तुम्हारा यह बालक कंसको सौंप ही दिया जाय। यों करनेपर मेरी बात भी मिथ्या नहीं होगी। झूठी बात जगत्‌में निन्दा करानेवाली होनेसे सर्वथा निषिद्ध है। इस अनित्य संसारमें केवल धर्म ही सार है। प्रिये! जिसके मुखसे सत्य वाणी नहीं निकलती, उसका जीवन धारण करना ही निष्फल समझा जाता है।

जिस असत्यके प्रभावसे लोकमें मानवकी मान्यता घट जाती है, उसे परलोकमें सुखदायी कैसे माना जाय? अतएव सुभ्रु! तुम पुत्रको दे दो, ताकि मैं इसे कंसको सौंप आऊँ। देवी! सत्यकी रक्षा करनेसे भविष्यमें कल्याण निश्चित है। प्रिये! सुख अथवा दुःख,किसी भी परिस्थितिमें पुरुषको उत्तम कार्य ही करना चाहिये। सत्यपालनसे मेरा अवश्य कल्याण होगा।’ इस प्रकार अपने पतिदेवके कहनेपर देवकीने अत्यन्त शोकके साथ नवजात पुत्र वसुदेवजीको दे दिया। पुत्रको देते समय मनस्विनी देवकीके सभी अंग काँप उठे। धर्मात्मा वसुदेवने अपने उस बच्चेको ले लिया और वे कंसके महलकी ओर चल पड़े। 

 



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