श्रीमद्भागवत श्रवण के प्रभाव से धुंधुकारी को पिशाच शरीर से मुक्ति की कथा

कलियुग के प्रारंभ में , आत्मदेव और धुंधुलि नाम के पति पत्नी तुंगभद्रा नदी के तट पर स्तिथ एक नगर में वास करते थे । आत्मदेव के पास संपत्ति और सुख सुविधा की कोई कमी नही थी । आत्मदेव वेदों के ज्ञाता और अत्यंत तेजस्वी थे परंतु उनकी पत्नी धुंधुलि झगड़ालू और आलसी थी । दोंनो के पास सारी सुख सुविधाएं होने के पश्चात भी संतान न होने के कारण दोनों दुखी थे । यज्ञ , हवन और दान आदि करने के बाद भी आत्मदेव को कोई संतान नही हुई । एक बार आत्मदेव दुखी होकर जंगल के रास्ते से जा रहे थे । उन्हें वहां एक सन्यासी मिले और बहोत विनती करने पर उस सन्यासी ने आत्मदेव को एक फल दिया और फल को उसकी पत्नी धुंधुलि को देने के लिए कहा ।

धुंधुलि बहोत ही आलसी थी उसने वह फल अपनी गाय को खिला दिया । उस समय धुंधुलि की बहन भी गर्भवती थी , धुंधुलि ने अपनी उस बहन के पति को पैसे देकर बच्चा लेने का सौदा कर लिया और खुद घर मे रहने लगी । समय पूर्ण होनेपर धुंधुलि की बहन ने एक पुत्र को जन्म दिया , उसे लाकर धुंधुलि को देदिया और सबको कह दिया कि उसका बेटा जन्म लेते ही मर गया । धुंधुलि ने भी अपने पति को कहकर उसकी बहन को घर बुललिया क्यों कि उसके स्थानों में दूध नही था । आत्मदेव ने अपने उस पुत्र का नाम धुंधुकारी रखा । तीन महीने बाद जिस गाय को धुंधुलि ने सन्यासी द्वारा दिया हुआ फल खिलाया था उसने भी एक बालक को जन्म दिया । गाय के पेट से उत्पन्न उस बालक के कान गाय के तरह थे इसीलिए आत्मदेव ने उसका नाम गोकर्ण रख दिया ।

आत्मदेव ने गोकर्ण और धुंधुकारी दोनों के जातकर्म आदि कराया और दोनों को वेद आदि सीखने की प्रक्रिया आरंभ की । गोकर्ण की वेद अध्यन में बहोत रुचि थी , वे सात्विक स्वभाववाले थे और सभी के साथ अच्छा व्यवहार करते थे । संसार के प्रति उनके मन मे कोई रुचि नही थी और वे वैरागी होगये । गोकर्ण जी के भाई  धुंधुकारी तमोगुणी थे , वे सदा उनके उम्र के बच्चों के साथ झगड़ा करते । उन बच्चों से वह गेंद लेता और उसे देने के बहाने उनलोगों को पानी मे गिरा देता । आत्मदेव और धुंधुलि के लिए वह बहोत परेशानी खड़ी कर देता था । 

जब दोनों युवा होगए तो कुछ साल बाद गोकर्ण तीर्थ यात्रा करने के लिए अपने नगर से चले गए और इधर आत्मदेव धुंधुलि के साथ केवल उनका पुत्र धुंधकारी ही रह गए । धुंधकारी बड़ा होने के बाद बहुत ही उद्दंड हो गया, वह चोरी करने लग,  लोगों के घरों से वह कुछ भी सामान उठा लेता । बच्चों को उठाकर कभी-कभी कुएं में फेंक देता । उसके इस बर्ताव से लोग बहुत ही परेशान हो गए । उसने वैश्याओं के चंगुल में पढ़कर पिता की सारी संपत्ति लुटा डाली ,इससे आत्मदेव फूट-फूट कर रोने लगे ।

अपने पुत्र धुंधकारी के इस व्यवहार से आत्मदेव बहुत ही परेशान हो गए थे । वे मन ही मन सोचने लगे ऐसा पुत्र होने से अच्छा है मैं पुत्र हीन ही रहता । ऐसा पुत्र तो केवल दुख ही देता है और नरक का रास्ता ही दिखाता है । धुंधकारी के जन्म के पूर्व उस सन्यासी ने मुझे ठीक ही कहा था कि मुझे विरक्त होना चाहिए ,क्योंकि गृहस्थ जीवन में यदि ऐसे पुत्र हो गए तो सुख की कोई आशा नहीं । मुझे उस समय उस सन्यासी की बातें सुन लेनी चाहिए थी, यदि सुन लेता तो आज मुझे यह दिन देखने नहीं पड़ते । आत्मदेव इसी तरह विचार करते रहे और अपने गृहस्थ जीवन से दुखी होकर, संसार  त्यागने का मन बना चुके थे ।

कुछ दिनों बाद गोकर्ण जी अपनी तीर्थ यात्रा पूर्ण करके अपने पिता के पास आए और उन्होंने अपने पिता को वैराग्य का ज्ञान दिया । गोकर्ण जी ने कहा पिताश्री यह संसार नश्वर है, यहां कोई भी वस्तु स्थिर नहीं रहती । कुछ समय पहले आप बहुत ही धनवान व्यक्ति थे किंतु आज आपके पास कुछ भी नहीं है । इसीलिए इन सांसारिक वस्तुओं का मोह त्याग दीजिए और भगवत भक्ति में लग जाइए, क्योंकि केवल परमात्मा श्रीकृष्ण की भक्ति ही सुख देने में सक्षम है । अपने पुत्र की यह सारी बातें सुनकर आत्मदेव वन के लिए चले गए और इधर गोकर्ण जी भी फिर से तीर्थयात्रा के लिए चले गए ।

पिता के चले जाने के बाद धुंधकारी ने पैसों के लिए अपनी माता धुंधली से आग्रह किया । जब उसने कोई पैसे नहीं दिए, तब उसने अपनी माता को भी मारना पीटना आरंभ कर दिया । अपने पुत्र के ऐसे व्यवहार से धुंधली परेशान हो गई और वह रात को कुएं में गिर कर मर गई । इसके बाद धुंधकारी ने कुछ पांच वेश्याओं को लाकर अपने घर में रख लिया और वह उनकी इच्छाओं की पूर्ति के लिए चोरी आदि करके पैसे लेकर आता ।

इससे वैश्याएं खुश होती लेकिन सबने मिलकर यह विचार किया, यह तो चोरी करता है कभी ना कभी राजा इसे पकड़ लेंगे । तब हम भी इसकी वजह से समस्या में पड़ सकते हैं, इसीलिए अच्छा तो यही होगा कि हम लोग इसे मार दे और धन को आपस में बांट लें । ऐसा विचार करके, वैश्याओंने धुंधकारी को एक दिन रात मार दिया और उसके शव को जमीन में गाड़ दिया । जब कोई उन्हें पूछता कि धुंधुकारी कहां पर है ,तो वह कह देती कि धुंधकारी अभी जादा लाने के लिए कहीं दूर देश में गया है । कुछ दिनों बाद वे सभी धुंधकारी का सारा धन लेकर वह नगर छोड़ कर चली गई । मारने के बाद धुंधुकारी पिशाच होगया ।

गोकर्णजी को जब लोगों के द्वारा यह बात पता चली कि उनका भाई मर गया और पिशाच हो गया है तो वह जहां पर जाते अपने भाई के लिए तर्पण करते । यह सोच कर कि वह इस पिशाच शरीर से मुक्त हो जाए । एक समय की बात है गोकर्ण जी तीर्थ यात्रा करके फिर से अपने नगर में आए और रात के समय अपने घर में आकर सो गए । तब धुंधकारी भी उस समय वही आया और अपने भाई को वहां देखकर उसने अनेकों रूप बनाकर उन्हें डराने की कोशिश की । तब गोकर्णजी ने उसको पूछा कि तुम कौन हो ,तुम्हें क्या चाहिए । तब धुंधुकारी ने कहा, मैं तुम्हारा भाई हूं, अपने कुकर्मों के कारण आज मैं पिशाच बन गया हूं । तुम कृपा करके मुझे इस पिशाच रूप से मुक्ति दिला दो ।  तब गोकर्ण जी ने कहा मैंने तुम्हारे लिए हर एक तीर्थ में तर्पण किया था । किंतु  फिर भी तुम्हें मुक्ति नहीं मिली यह तो बड़े आश्चर्य की बात है । गोकर्ण जी ने कहा, मैं तुम्हारी समस्या का कोई समाधान ढूंढता हूं तब तक तुम अपने स्थान पर चले जाओ ।

अगले दिन गोकर्ण जी को मिलने बहुत सारे नगरवासी आए और बहुत से विद्वान भी आये थे । उन्होंने सबसे इस विषय के बारे में पूछा, किंतु किसी के पास भी कोई उत्तर नहीं था । तब गोकर्ण जी ने अपने तप के प्रभाव से सूर्य की गति को रोक दिया और उनसे पूछा कि धुंधकारी की मुक्ति कैसे होगी । तब सूर्यनारायण ने कहा तुम धुंधुकारी को श्रीमद्भागवत का श्रवण कराओ जिससे वह अवश्य मुक्त होगा । तब गोकर्णजी ने कुछ लोगों की सहायता लेकर भागवत श्रवण की सारी तैयारियां करा दी । उस समय उन्होंने बहुत सारे लोगों को निमंत्रण भी भेजा और एक अच्छा सा मंडप बनाकर उन लोगों ने वहां पर भागवत कथा का आरंभ कर दिया ।

धुंधकारी भी उस स्थान पर आ गया जहां पर कथा चल रही थी और वह एक बांस के पेड़ में बैठ गया । क्योंकि उसका शरीर वायु का था तो वह कहीं और बैठ नहीं सकता था । जब पहले दिन की कथा समाप्त हुई तो लोगों ने बांस टूटने का शब्द सुना दूसरे दिन भी यही हुआ इसी तरह सात दिनों तक बांस टूटने का शब्द आता रहा । वास्तव में यह श्रीमद्भागवत के श्रवण से धुंधकारी के पापों के नाश की आवाज थी । सातवें दिन जब श्रीमद्भागवत  कथा पूर्ण हुई तो धुंधकारी एक दिव्य पुरुष के रूप में परिणित हो गए और उन्हें  ले जाने के लिए भगवान श्रीकृष्ण के पार्षद वहां पर विमान के साथ आए । यह देख कर सबको आश्चर्य हुआ,तब गोकर्णजी ने पूछा यहां पर तो सभी लोगों ने एक साथ कथा सुनी है, तो फल में ऐसा भेद क्यों है कि केवल धुंधकारी को ही भगवान के लोक को ले जाया जा रहा है और दूसरों को नहीं ।

तब भगवान के पार्षदों ने कहां, यह सच है कि सभी ने भागवत पुराण की कथा सुनी है किंतु इस धुंधकारी ने निराहार रहकर कथा सुनी । उसने कथा के समाप्त होने पर प्रत्येक दिन कथा का मनन किया है इसीलिए इसे आज मोक्ष की प्राप्ति हो गई है । गोकर्णजी आप फिर से कथा पाठ कीजिए और सभी लोग ध्यान पूर्वक सुनिए तो सभी को मोक्ष अवश्य ही मिल जाएगा । आपको तो स्वयं भगवान ही यहां पर आकर अपने लोक को ले जाएंगे । भगवान के पार्षदों के यह कहने के कुछ महीनों बाद गोकर्ण जी ने फिर से कथा सुनाई और कथा समाप्त होने के बाद वहां पर बहुत सारे विमान आ गए ।  स्वयं भगवान श्रीकृष्ण भी आए थे उन्होंने गोकर्ण जी का सम्मान किया और वहां पर उपस्थित सभी लोगोंको साथ लेकर अपने लोक चले गए ।

इस तरह श्रीमद्भागवत के श्रवण के प्रभाव से धुंधकारी को पिशाच योनि से मुक्ति मिली थी और वह भगवान के धाम को चले गए और गोकर्ण जी भी कथा सुनाने के प्रभाव के फल स्वरूप भगवान के साथ उनके लोक चले गए ।



Categories: भागवत पुराण, श्री कृष्ण की कथाएँ

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