आत्मदेव के पुत्र धुंधुकारी और गोकर्ण के जन्म की कथा

पूर्व समय की बात है तुंगभद्रा नदी के तटपर एक सुंदर नगर बसा था, उस नगर में  सारे वर्णों के अनेक लोग  अपने – अपने  वर्ण अनुसार कर्म में लगे रहते थे । उसी नगर में आत्मदेव नाम के एक ब्राह्मण अपनी पत्नी के साथ रहते थे । आत्म देव बहुत ही ज्ञानी और तेजस्वी थे । उनकी पत्नी का नाम धुंधली था, वह अच्छे घर की होने के बावजूद भी बहुत ही झगड़ालू थी । आत्मदेव, धुंधली के पास अपार संपत्ति और सारी सुख सुविधाएं होने के बाद भी उनके घर में शांति नहीं थी । इसका कारण यह था की दोनों की कोई संतान नहीं थी ।

संतान प्राप्ति के लिए दोनों ने बहुत सारे व्रत और उपवास किये । बहुत सारे यज्ञ और हवन कराए । इतना करने के पश्चात भी आत्मदेव को कोई संतान नहीं हुई । इस कारणवश आत्मदेव बहुत ही उदास रहने लगे । उनको अब जीवन में किसी भी वस्तु में कोई रुचि नहीं रह गई थी । एक दिन आत्म देव सुबह अपने घर से निकल गए और जंगल की राह पकड़ ली । रास्ते में उन्हें प्यास लगी तो एक तालाब के पास रुक गए और वहां पर उन्होंने जलपान किया आत्मदेव ने देखा कि वहां पर एक सन्यासी जल पी रहे है । तब आत्मदेव सन्यासी के सामने गए और हाथ जोड़कर उनके सामने खड़े होकर उन्हें प्रणाम किया ।

प्रणाम करने के बाद सन्यासी ने आत्मदेव से पूछा, ब्राह्मणदेव आप कुछ चिंतित दिखाई दे रहे हैं आपको कौन सा काष्ठ है बताइये । सन्यासी की बातें सुनकर आत्मदेव कहने लगे मेरे पास सब कुछ है, धन-संपत्ति सुख सुविधाओं की कोई कमी नहीं है । मुझे केवल एक ही दुख है , संतान नहीं होने का दुख । संतान हीन व्यक्ति का जन्म व्यर्थ ही माना जाता है । बिना संतान के सुख संपत्ति का कोई उपयोग नहीं है । क्योंकि अगर संतान होती है तो धन संपत्ति उसे दे सकते हैं और उससे माता पिता को सुख की प्राप्ति होती है । इसीलिए मैंने संतान प्राप्ति के लिए बहुत से यज्ञ और हवन किए, दान दक्षिणाए दी ,किंतु फिर भी मुझे कोई संतान नहीं हुई ।

आत्मदेव की बातें सुनकर सन्यासी ने कहा ,ब्राह्मणदेव आप क्यों इस गृहस्थ जीवन में ज्यादा दुख पाना चाहते हैं । मनुष्य को चाहिए कि वह विरक्त रहने की चेष्टा करें, पत्नी,पुत्र इन सबसे तो जीवन में कष्ट ही मिलता है । गृहस्थ को जो सुकून से मिलता है, वह क्षणिक है । शाश्वत सुख तो केवल विरक्त मनुष्य को ही मिलता है ,क्योंकि वह स्वतंत्रता है । गृहस्थ मनुष्य को सदा पराधीन रहना पड़ता है । इसीलिए संतान प्राप्ति के इस मोह को त्याग दो और अपने घर जाकर सुख पूर्वक अपना जीवन व्यतीत करो । सन्यासी की बहुत समझाने पर भी आत्म देव कुछ नहीं समझे ,क्योंकि संतान प्राप्ति के मोहने मन को बांध लिया था ।

आत्मदेव को ना मानते हुए देख सन्यासी ने का प्रारब्ध देख कर कहा , आत्मदेव अगले सात जन्मोतक तुम्हे कोई संतान नही होगी । इसीलिए तुम अपने घर जाओ , , लेकिन आत्मदेव नही माने तब सन्यासी ने आत्मदेव को एक फल दिया और कहा, तुम इस फल को अपनी पत्नी को खाने के लिए दो , जिससे तुम्हें पुत्र की प्राप्ति होगी । तुम्हरी पत्नी से कहना कि ओ एक वर्ष तक नियमो का पालन करे , अपने मन पर नियंत्रण रखें और कभी क्रोध ना करे और सदा भगवान की भक्ति में लगी रहे । ऐसा करने से तुम्हे मन के अनुकूल आचरण करने वाला पुत्र प्राप्त होगा और वह सदाचारी भी होगा । सन्यासी इतना काहने के बाद वहाँ से चले गए , आत्मदेव भी वह फल लेकर अपने घर को चला गया । 

घर जाने के बाद आत्मदेव ने सन्यासी द्वारा दिया हुआ फल अपनी पत्नी धुंधुलि को खाने के लिए दिया और सन्यासी द्वारा बताए गए सारे नियमो को पालन करने के लिए कहा । आत्मदेव की पत्नी दुंधुली बहोत ही आलसी थी, उसने अपनी पड़ोसी के पास जाकर इस बारे में बात की । धुंधुलि ने अपनी पड़ोसी मित्र से कहा , बहन कहीं फल खाने से भी पुत्र प्राप्ति होती है क्या । गर्भ में बच्चा धारण करना बहोत ही काष्ठदायी काम होता है । ठीक से अपनी मर्जी का खाना भी नही खा सकते, प्रसव करते समय असहनीय पीड़ा को भोगना पड़ता है और यदि कहीं इधर की उधर हो गई तो प्रसव के समय अपने प्राणों से हाथ भी धोना पड़ सकता है ।

प्रसव के बाद बच्चे का मल मूत्र साफ करना पड़ता है ,उसका खयाल रखना पड़ता है । बच्चे तो हमेशा रोते ही रहते हैं, उसकी वजह से ढंग से नींद भी नहीं हो पाती । इसीलिए मैं समझती हूं कि जिन स्त्रियों के बच्चे नहीं है वे ही सुखी है, या जो विधवा स्त्री है वही सुखी है । क्योंकि उन्हें संतान को घर में रखने का और पालने का कष्ट नहीं भोगना पड़ता है । इस तरह अपने पड़ोसी के साथ बकवास करके , आत्मदेव के द्वारा दिए हुए उस पल को अपनी गाय को खिला दिया ।

उसी समय की बात है धुंधली की बहन उसके घर आती है , धुंधुलि उसे अपना यह सारा वृत्तांत कह सुनाति है ।  धुंधली को सुनने के बाद उसकी बहन कहती है, तुम चिंता मत करो मैं भी गर्भवती हूं । तुम मेरे पति को कुछ पैसे दे देना ,जन्म लेते ही अपने बच्चों को तुम्हें दे दूंगी ,तुम अभी घर में ही रहना, घर से बाहर मत निकालना । मेरा बच्चा तुम्हें देने के बाद, सभी से कहदूंगी कि मेरा बालक मरगया । तब तुम मेरे बच्चे को ही अपना बच्चा कह कर अपने पति को बता देना, इस तरह कहकर दोनों बहने अपनी योजना के अनुरूप कार्य करती है । समय बीत जाने पर धुंधली के बहन के यहां एक बालक उत्पन्न होता है और वह उस बालक को लाकर धुंधली को दे देती है । वह लोगों में कहती है कि उसका बालक मर गया ,इधर धुंधली अपने पति से कहती है, मेरे स्थानों में दूध नहीं है । इसीलिए हम यहां पर मेरी बहन को लाकर रख लेते हैं उसका बालक जन्म लेते ही मर गया है ।

धुंधुलि की बात मान कर आत्मदेव ने उसके बहन को अपने घर में रहने की अनुमति दे दी । बालक के जन्म लेने के बाद आत्मदेव ने अपने घर में उत्सव मनाया और ब्राह्मणों को दान आदि देकर जन्मोत्सव की सारी विधियां पूरी की ।  इसके ठीक तीन महीने बाद, उस गाय ने भी जिसे धुंधली ने सन्यासी  द्वारा दिया गया फल खिलाया था, एक बालक को जन्म दिया । वह बालक मनुष्यों की तरह ही था, यह देखकर आत्मदेव को बड़ा आश्चर्य हुआ । सारे लोगों में यह बात फैल गई और लोग दूर-दूर से उस बालक को देखने के लिए आते थे । लोगों ने यह भी कहा,आत्मदेव कितना भाग्यशाली है, पहले तो उसके यहां कोई बालक नहीं था, लेकिन अब दो बालक हो गए ।

गाय के पेट से उत्पन्न उस बालक के कान गाय के तरह थे । इसीलिए उसका नाम आत्मादेव ने गोकर्ण रखा । गोकर्ण बहुत ही साधु पुरुष और भगवान के परम भक्त निकले , परंतु धुंधली का पुत्र धुंधुकारी अत्यंत ही दुराचारी और नीच निकला । इसी के कारण वह एक पिशाच बन गया ,आगे चलके गोकर्ण जी ने अपने इस भाई को श्रीमद्भागवत महापुराण का श्रवण कराया । जिसके प्रभाव से वह अपने पिशाच रूप से मुक्ति पाया था और भगवान नारायण के धाम को चला गया था ।  लोगों को श्रीमद्भागवत पुराण पढ़ाने की और सुनाने के पूण्य कार्य से प्रभावित होकर स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ही गोकर्णजी को गोलोक लेकर चले गए ।

इस तरह गोकर्ण नामक ब्राह्मण की गाय के पेट से उत्पत्ति हुई थी और वह श्रीमद्भागवत को लोगों को सुनने के फल से भगवान श्रीकृष्ण के धाम में चले गए थे ।



Categories: भागवत पुराण

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