पूर्वकाल की बात है शुम्भ और निशुम्भ नाम के दो राक्षसों ने बल के घमंड में आकर देवराज इंद्र के हाथसे तीनों लोगों का राज्यभार छीन लिया और वही सूर्य चंद्रमा अग्नि वायु आदि सभी देवताओं के कार्य करने लगे । इन राक्षसों ने देवताओं को स्वर्ग से बाहर निकाल दिया, तब देवताओं को आदिशक्ति ने दिया हुआ वरदान स्मरण हुआ , की जब भी देवताओं पर संकट आएगा आदिशक्ति स्वयं प्रकट होकर उनका संकट निवारण करेंगी इस बात के स्मरण आने पर सारे देवता गिरिराज हिमालय पर गए और भगवती विष्णुमाया की स्तुति करने लगे ।
जब देवता वहां गिरिराज हिमालय पर आदिशक्ति की ऐसी स्तुति कर रहे थे , उसी समय देवी पार्वती नहाने के लिए गंगा जी के तट पर वहां से जा रही थी, उन्होंने समस्त देवताओं को स्तुति करते हुए देख पूछा कि, तुम यहां किसकी स्तुति कर रहे हो । तभी उनके शरीर से एक देवी प्रकट हुई और पार्वती देवी से कहा कि यह लोग शुंभ और निशुंभ राक्षसों से सताए हुए हैं । यहां पर मेरी ही स्तुति कर रहे हैं । देवी पार्वती के शरीर कोश से निकल ने के कारण इन देवी का नाम कौशिकी पड़ा । अम्बा भवानी देवी कौशिकी का पार्वती जी के शरीर से निकलने के बाद उनका रंग काला पड़ गया था इसीलिए वे महाकाली के नाम से विख्यात हुई ।
तदनंतर चंड मुंड नाम के शुंभ और निशुंभ के दो भाई , देवी कौशिकी को देखकर शुंभ और निशुंभ से यह कहते हैं कि, महाराज हिमालय पर एक बहुत ही सुंदर कन्या उपस्थित हुई है । उसका रूप अति मनमोहक है और हमने आज तक ऐसी सुंदर स्त्री कभी नहीं देखी । इसे स्त्रियों में रत्न ही माना जाना चाहिए । आपके पास सभी देवताओं के समस्त ऐश्वर्य है । ब्रह्माजी का विमान भी आपने अपने पास रखा है, इंद्र का ऐरावत और कुबेर की सारी धन-संपत्ति भी आपके ही पास है, फिर आपको स्त्रियों में रत्न इस स्त्री को अपना बनाने की कोशिश करनी चाहिए, कोशिश क्या हम तो कहते हैं इसे आपको अवश्य अपना बनाना चाहिए । चंड और मुंड की यह बातें सुनकर शुंभ और निशुंभ ने सुग्रीव नाम लर दैत्य को अपना दूत बनाकर देवी के पास भेजा ।
यह दूत हिमालय पर जहां कौशिकी देवी उपस्थित थी गया और उनसे कहने लगा देवी मुझे शुंभ और निशुंभ ने आपके पास दूत बनाकर भेजा है । उनके पास समस्त संसार की सारी संपत्ति है, वे सूर्य चंद्र और इंद्र आदि सभी देवतावों के कार्य स्वयं ही संभालते हैं , और चाहते हैं कि आप शुम्भ या निशुम्भ में जो भी आपको अच्छा लगे उसकी पत्नी बन जाए । दूत की बातें सुनकर देवी मुस्कुराई और कहने लगी , यह बात सही है कि शुम्भ और निशुम्भ त्रिलोकी में सबसे बलशाली है । किंतु मैंने अपने नादानी के वजह से एक प्रण लिया था, वह प्रण यह है कि जो भी मुझे युद्ध में हराएगा मैं उसी से विवाह करूँगी । यदि तुम्हारे यह दो महाराज मुझ से विवाह करना चाहते हैं तो उन्हें कहो कि पहले मुझे युद्ध में हराये । बाद में उनमेसे कोई एक मुझसे विवाह कर सकता हैं । देवी की यह बात सुनकर दूत ने कहा कि देवी तुम बेकार में प्रलाप कर रही हो जब देवता ही शुम्भ और निशुम्भ को नहीं हरा सके तो तुम स्त्री क्या उन्हें हरा पाओगे । देवी ने उसकी बात नहीं मानी यह देखकर वह वापस शुंभ और निशुंभ के पास चला गया और जैसा देवी ने कहा था वैसे ही उन दोनों को कह सुनाया।
दूत की बातें सुनकर शुंभ और निशुंभ को बड़ा क्रोध आया तब उन्होंने उनके सेनापति धूम्रलोचन को कहा कि धूम्रलोचन यदि यह स्त्री तुम्हारे कहने से आती है तो ठीक है नहीं तो इसके केश पकड़ कर इसे घसीटते हुए यहां पर ले आओ । शुंभ निशुंभ की आज्ञा पाकर धूम्रलोचन अपनी सेना सहित हिमालय पर गया और देवी से युद्ध करने लगा । देवी ने उसकी सारी सेना का क्षण भर में ही अंत कर दिया और केवल एक हुंकार मात्र से धूम्रलोचन का वध कर दिया ।
इस तरह देवी ने धूम्रलोचन नामक शुंभ और निशुंभ के सेनापति का अंत किया था ।
Categories: दुर्गा देवी की कथाएँ
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